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गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन
अनुभव किया है और नई स्थिति में रह रहा हूं। मैंने दोनों को साथ लेकर चलने का प्रयत्न किया है । इसलिए मैं रूढ़िवाद और अति आधुनिकता इन दोनों अतियों से बचकर चलने में समर्थ हो सका हूं ।"
प्राचीन को अपनाते समय भी उनका विवेक एवं मौलिक चिंतन सदैव जागृत रहा है । वे अनेक बार लोगों की सुप्त चेतना को झकझोरते हुए कहते हैं- "तीर्थंकरों ने कितना ही कुछ खोज लिया हो, आपकी खोज बाकी है । आपके सामने तो अभी भी सवन तिमिर है । आप प्रयत्न करें, किसी के खोजे हुए सत्य पर रुकें नहीं, क्योंकि वह आपके काम नहीं आएगा ।"" आचार्य तुलसी डा० राधाकृष्णन् के इस अभिमत से कुछ अंशों में सहमत हैं कि "आज यदि हम अपनी प्रत्येक गतिविधि में मनु द्वारा निर्दिष्ट जीवन पद्धति को ही अपनाएं तो अच्छा था कि मनु उत्पन्न ही नहीं हुए होते।" एक संगोष्ठी में लोगों की विचार चेतना को जागृत करते हुए वे कहते हैं- "महावीर ने जो कुछ कहा वही अन्तिम है, उससे आगे कुछ है ही नहीं - इस अवधारणा ने एक रेखा खींच दी है । अब इस रेखा को छोटा करने या मिटाने का साहस कौन करे ?"*
उनके साहित्य को पढ़ते समय ऐसा महसूस होता है कि प्राचीन संस्कारों एवं परम्पराओं से बंधे रहने पर भी युग को देखते हुए उसमें परिवर्तन लाने एवं नवीनता को स्वीकारने में वे कहीं पीछे नहीं हटे हैं । उनका स्पष्ट कथन है कि "प्राचीनता में अनुभव, उपयोगिता, दृढ़ता और धैर्य का एक लंबा इतिहास छिपा है तो नवीनता में उत्साह, आकांक्षा, क्रियाशक्ति और प्रगति की प्रचुरता है अतः अनावश्यक प्राचीनता को समेटते हुए आवश्यक नवीनता को पचाते जाना विकास का मार्ग है । एक को खंडित करके दूसरे को प्रस्तुत करना सत्य के प्रति अन्याय है ।
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उन्होंने नवीन और प्राचीन के सन्धिस्थल पर खड़े होकर दोनों को इस रूप में प्रस्तुति दी है कि नवीन प्राचीन का परिवर्तित रूप प्रतीत हो न कि ऊपर से लपेटी या थोपी वस्तु । यही कारण है कि उनके प्रवचनों में प्रतिपादित तथ्य म रूढ़ हैं और न अति आधुनिक बल्कि अतीत और वर्तमान दोनों का समन्वय है । इसी कारण उन्हें केवल प्रवचनकार ही नहीं अपितु युगव्याख्याता भी कहा जा सकता है ।
आस्था और तर्क का समन्वय
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प्रवचनकार के साथ आचार्य तुलसी एक महान् दार्शनिक भी हैं ।
१. बीती ताहि विसारि दे, पृ० ७८
२. बहता पानी निरमला, पृ० ९३
३. एक बूंद : एक सागर, पृ० ७८५
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