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________________ ४४ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण कहा-'भाई ! मिलावट पाप है, तोल-माप में कमी-बेशी करना ग्राहकों को धोखा देना है। एक धार्मिक व्यक्ति यह सब करे, उसका क्या प्रभाव होता होगा ?' वह बोला-'आपका कहना सही है। पर क्या करूं ? गृहस्थ को सब कुछ करना पड़ता है।' मैंने उस भाई को समझाने के लिए सारी शक्ति लगा दी। पर वह टस से मस नहीं हुआ। न उसने मिलावट छोड़ी न और कुछ। ___ मैंने उस भाई को स्पष्टता से कहा-'आपके गुरु किसी शराबी व्यक्ति से बात करते हैं तो आपको खराबी का अन्देशा रहता है, जबकि उस व्यक्ति ने पूरी शराब छोड़ दी। आप जैसे व्यक्तियों के साथ बात करने में हमारी गरिमा कैसे बढ़ेगी? आप जैन होकर भी अपने व्यवसाय में ईमानदार नहीं हैं। शराब पीने वाला तो केवल अपना नुकसान करता है, जबकि व्यापार में की जाने वाली हेराफेरी से तो हजारों का नुकसान होता है । आप अपने गुरुओं पर तो अंकुश लगाना चाहते हैं, पर स्वयं पर कोई अंकुश नहीं है। ऐसी धार्मिकता से किसका कल्याण होगा ?' मेरी बात सुन उस भाई को अपनी भूल का अहसास हो गया।' आचार्य तुलसी ने जनसामान्य के मन में उठने वाले संदेहों, संकल्पोंविकल्पों एवं मानसिक दुर्बलताओं को उठाकर उसका सटीक समाधान प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया। विषय के प्रतिपक्ष में उठने वाले तर्क उठाकर उसे समाहित करने से उनकी वर्णन शैली में एक चमत्कार उत्पन्न हो गया है तथा विषय की स्पष्टता भी भलीभांति हो गई है। इस प्रसंग में निम्न उदाहरण को रखा जा सकता है-- "कुछ व्यक्ति कहा करते हैं हम त्याग तो करलें लेकिन भविष्य का क्या पता ? कभी वह टूट जाए तो? यह तो ऐसी बात हुई कि कोई भोजन करने से पहले ही यह कहे कि मैं तो भोजन इसलिए नहीं करूंगा कि कहीं अजीर्ण हो जाए तो? क्या उस अप्रकट अजीर्ण के डर से भोजन छोड़ा जा सकता है ? इसी प्रकार व्रत लेने से पहले ही टूटने की आशंका करना व्यर्थ है।" नवीनता और प्राचीनता का संगम उनके प्रवचन साहित्य को नवीनता भोर प्राचीनता का संगम कहा जा सकता है। उनका चिन्तन है कि "पुराणमित्येव न साधु सर्व" यह सत्य है तो "नवीनमित्येव न साधु सर्व" यह भी सत्य है । अतः दोनों का समन्वय अपेक्षित है। इस सन्दर्भ में वे अपनी अनुभूति इस भाषा में प्रस्तुत करते हैं_ "मैं अतीत और वर्तमान दोनों के सम्पर्क में रहा हूं। पुरानी स्थिति का मैंने १. मनहंसा मोती चुगे, पृ० ९०-९१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003117
Book TitleAcharya Tulsi Sahitya Ek Paryavekshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages708
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size23 MB
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