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गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन
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उद्देश्य भौतिक धरातल पर नहीं, आध्यात्मिक स्तर पर निर्धारित करना आवश्यक है । जीवन के उद्देश्य से परिचित कराने वाली उनकी निम्न उक्ति अत्यन्त प्रेरक है --'' जीवन का उद्देश्य इतना ही नहीं है कि सुख-सुविधापूर्वक जीवन व्यतीत किया जाए, शोषण और अन्याय से धन पैदा किया जाए, बड़ी-बड़ी भव्य अट्टालिकाएं बनायी जाएं और भौतिक साधनों का यथेष्ट उपयोग किया जाए । उसका उद्देश्य है— उज्ज्वल आचरण, सात्त्विक वृत्ति और प्रतिक्षण आनंद का अनुभव ।"
सामयिक सत्यों की प्रस्तुति
एक धर्माचार्य द्वारा सामयिक संदर्भों से जुड़कर युग की समस्याओं को समाहित करने का प्रयत्न इतिहास की दुर्लभ घटना है । पर्यावरण प्रदूषण आज की ज्वलंत समस्या है। मानव के यांत्रिकीकरण और प्रकृति से दूर जाने की बात देखकर वे लोगों को चेतावनी देते हुए कहते हैं- "आदमी जितना प्रबुद्ध और सम्पन्न होता जा रहा है, प्रकृति से वह उतना ही दूर होता जा रहा है । न वह प्राकृतिक हवा में सोता है, न प्राकृतिक ईंधन से बना खाना खाता है और न प्रकृति के साथ क्रीड़ा करता है । शायद इसी कारण प्रकृति अपने तेवर बदल रही है और मनुष्य को प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पड़ रहा है ।'
प्रचुर मात्रा में प्रकृति का दोहन असंतुलन की समस्या को भयावह बना रहा है । प्रकृति के अनावश्यक दोहन एवं उपयोग के बारे में वे मानव जाति का ध्यान आकृष्ट करते हुए कहते हैं- " सूखी धरती को भिगोने की क्षमता मनुष्य में हो या न हो, वह पानी का दुरुपयोग क्यों करे ? पांच किलो पानी से जो काम हो सके, उसमें सांवर खोलकर पचास किलो पानी नालियों में बहा देना पानी के संकट को बढ़ाने की बात नहीं है क्या ? वे तो वैज्ञानिकों को यहां तक चेतावनी दे चुके हैं - 'जब से मनुष्य ने पदार्थ की ऊर्जा में हस्तक्षेप शुरू किया, उसी दिन से मनुष्य का अस्तित्व विनाश के कगार पर खड़ा है । ३
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वर्तमान क्षण के सुख में डूबा मनुष्य भविष्य की कठिनाइयों की ओर से आंख मूंद रहा है । उनकी यह अभिप्रेरणा अनेक प्रसंगों में मुखर होती है । वे जन-साधारण को संयम का संदेश देते हुए कहते हैं- "जब तक मानव संयम की ओर नहीं मुड़ेगा, पिशाचिनी की तरह मुंह बाए खड़ी विषम समस्याएं उसका पीछा नहीं छोड़ेंगी । ""
१२. अणुव्रत, १६ अप्रेल ९० ३. कुहासे में उगता सूरज, पृ. ३८ ४. एक बूंद : एक सागर, पृ. १४०९
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