________________
९८
- आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण
"अपने से विरोधी विचारों को सुनना, पचा लेना, एवं ग्राह्य की प्रशंसा करना-यह कार्य आचार्य तुलसी जैसे महान व्यक्ति ही कर सकते हैं । सचमुच आप स्वस्थ विचार एवं स्वस्थ मस्तिष्क के धनी हैं।" अहिंसात्मक प्रतिरोध
__ प्रतिरोध हिंसात्मक भी होता है और अहिंसात्मक भी। हिंसात्मक प्रतिरोध क्षणिक होता है किन्तु अहिंसात्मक प्रतिरोध का प्रभाव स्थायी होता है । महावीर ने प्रतिरोधात्मक अहिंसा का प्रयोग दासप्रथा के विरोध में किया। उसी कड़ी में गांधीजी ने भी इसका प्रयोग सत्याग्रह आंदोलन के रूप में किया, जो काफी अंशों में सफल हुआ।
आचार्य तुलसी अपने दीर्घकालीन नेतृत्व के अनुभवों को बताते हुए कहते हैं-"जन-जन के लिए अहिंसा तभी व्यवहार्य और ग्राह्य हो सकती है, जब उसमें प्रतिरोध की शक्ति आए। इसके बिना अहिंसा तेजहीन हो जाती है । निर्वीर्य अहिंसा में आज के युग की आस्था नहीं हो सकती।"
___ जब तक प्रतिरोधात्मक शक्ति जागृत नहीं होती, व्यक्ति अन्याय के विरोध में आवाज नहीं उठा सकता। इसी बात पर टिप्पणी करते हुये वे कहते हैं—“समाज या परिवार में जो कुछ भी गलत घटित होता है, उस समय यदि आप यह सोचें कि उससे आपका क्या बिगाड़ता है ? बुराई के प्रति यह निरपेक्षता या तटस्थता बहुत घातक सिद्ध हो सकती है। इसलिए अपने भीतर सोई प्रतिवाद की शक्ति को जागृत करना बड़ा जरूरी है। इससे अहिंसा का वर्चस्व बढ़ेगा और समाज में बुराइयों का अनुपात कम होगा।
आचार्य तुलसी मानते हैं कि तटस्थता और विनम्रता अहिंसात्मक प्रतिरोध के आधार स्तम्भ हैं। उनकी दृष्टि में किसी भी विचार के प्रति पूर्वाग्रह या अहंभाव टिक नहीं सकता। पक्ष विशेष से बन्धकर प्रतिरोध की बात करना स्वयं हिंसा है। वहां अहिंसात्मक प्रतिरोध सफल नहीं होता।
प्रतिरोध करने वाले व्यक्ति की चारित्रिक विशेषताओं के बारे में उनका मन्तव्य है कि अहिंसात्मक प्रतिकार के लिए व्यक्ति में सबसे पहले असाधारण साहस होना नितांत अपेक्षित है । साधारण साहस हिंसा की आग देखकर कांप उठता है। जहां मन में कम्पन होता है, वहां स्थिति का समाधान हिंसा में दिखाई पड़ता है। दर्शन का यह मिथ्यात्व व्यक्ति को हिंसा की प्रेरणा देता है। हिंसा और प्रतिहिंसा की यह परम्परा बराबर चलती रहती है। इस परंपरा का अन्त करने के लिये व्यक्ति को सहिष्णु बनना पड़ता है। १. अतीत का विसर्जन : अनागत का स्वागत, पृ० १३३ । २. बीती ताहि विसारि दे, पृ० १११ । ३. अणुव्रत : गति प्रगति, पृ० १५६ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org