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गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन
से होली खेले. यह तो आश्चर्यचकित करने वाली बात है । '
वैचारिक हिंसा को स्पष्ट करते हुए उनका कहना है- “किसी की असत् आलोचना करना, किसी के विचारों को तोड़-मरोड़कर रखना, आक्षेप लगाना, किसी के उत्कर्ष को सहन न करके उसके प्रति घृणा का प्रचार करना तथा अपने विचारों को ही प्रमुखता देना वैचारिक हिंसा है । इसी सन्दर्भ में उनका निम्न वक्तव्य भी वजनदार है - " घृणा, ईर्ष्या, द्वेष, वैमनस्य, वासना और दुराग्रह – ये सब जीवन में पलते रहें और अहिंसा भी सती रहे, यह कभी सम्भव नहीं है ।'
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आज की बढ़ती हुई वैचारिक हिंसा का कारण स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं -- " वैचारिक हिंसा में प्रत्यक्ष जीवघात न होने से वह जन-साधारण बुद्धिगम्य नहीं हो सकी । यही कारण है कि आज लोग जितना जीव मारने से घबराते हैं, उतना परस्पर विरोध, अप्रामाणिकता, ईर्ष्या, क्रोध, स्वार्थ आदि से नहीं घबराते । *
महावीर ने अनेकांत के द्वारा वैचारिक अहिंसा को प्रतिष्ठित करने का प्रयत्न किया | अनेकांत के माध्यम से उन्होंने मानव जाति को प्रतिबोध दिया कि स्वयं को समझने के साथ दूसरों को भी समझने की चेष्टा करो । अनेकांत के बिना सम्पूर्ण सत्य का साक्षात्कार नहीं किया जा सकता । आचार्य तुलसी ने न केवल उपदेश से बल्कि अपने जीवन के सैकड़ों घटना प्रसंगों से वैचारिक अहिंसा का सक्रिय प्रशिक्षण भारतीय जनमानस को दिया है । सन् १९६२ के आसपास की घटना है। अणुव्रत गोष्ठी के कार्यक्रम में नगर के लब्धप्रतिष्ठ वकील को भी अपने विचार व्यक्त करने के लिए निमंत्रित किया गया । उन्होंने वक्तव्य में अणुव्रत के सम्बन्ध में कुछ जिज्ञासाएं एवं शंकाएं उपस्थित कीं। उन्हें सुनकर अनेक श्रद्धालुओं ने उनको उपालम्भ दे डाला । शाम को कार्यक्रम की समाप्ति पर वकील साहब ने अपने प्रात:कालीन वक्तव्य के लिए क्षमायाचना करने की इच्छा व्यक्त की । इसे सुनकर आचार्यश्री ने कहा - " आपके विचार तो बड़े प्राञ्जल और प्रभावोत्पादक थे। मैंने बहुत ध्यान से आपकी बात सुनी है । मैं तो आपके विचारों की सराहना करता हूं कि कोई समीक्षक हमें मिला तो सही ।' "" आचार्यवर के इन उदार विचारों को सुनकर वकील साहब अभिभूत हो गए और बोले
१. प्रवचन पाथेय भाग-९, पृ० ५१ ।
२. पथ और पाथेय, पृ० ३२, ३३ ।
३. गृहस्थ को भी अधिकार है धर्म करने का, पृ० १५ ।
४. पथ और पाथेय, पृ० ३३ ।
५. जैन भारती, २५ फरवरी १९६२ ।
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