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आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण साधना का प्रकाश साहित्य है। अतः साहित्य का मर्म वही समझ सकता है, जो साधता और तपस्या का मूल्य समझे। ऐसा साहित्य कभी पुराना नहीं हो सकता क्योंकि विज्ञान, समाज तथा सांस्कृतिक तत्त्व समय की गति के अनुसार बदलते हैं, पर साहित्य हृदय की वस्तु है। जो साहित्य नामधारी वस्तु लोभ और घृणा पर आधारित है, वह साहित्य कहलाने के योग्य नहीं है, वह हमें विशुद्ध आनंद नहीं दे सकता।
प्रसिद्ध समालोचक बाबू गुलाबराय कहते हैं - "जहां हित और मनोहरता की युति है, वहीं सत्साहित्य की सृष्टि होती है। "हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः"- साहित्य इसी दुर्लभ को सुलभ बनाता है ।"२ साहित्य की कसौटी
___ "जो साहित्य मनुष्य को दुर्गति, हीनता और परमुखापेक्षिता से न बचा सके, जो उसकी आत्मा को तेजोदीप्त न बना सके, हृदय को 'परदुःखकातर और संवेदनशील न बना सके, उसे साहित्य कहने में मुझे संकोच होता है"-हजारीप्रसाद द्विवेदी की ये पंक्तियां साहित्य की कसौटियों को समग्र रूप से हमारे सामने प्रस्तुत करती हैं। ये साहित्य के भावतत्त्व को प्रकट करने वाली हैं पर बाह्य रूप से टालस्टॉय ने तीन प्रकार के नकारात्मक साहित्य का उल्लेख किया है
1 Borrowed-कहीं से उधार लिया हुआ । 2. Imitated-कहीं से नकल किया हुआ। 3. Countefiet - खोटा साहित्य ।
इन तीनों प्रकार के साहित्य में मौलिकता एवं प्रभावोत्पादकता नहीं होती अतः उन्हें साहित्य की कसौटी पर नहीं कसा जा सकता। प्रसिद्ध साहित्यकार नवीनजी का कहना है कि मेरे समक्ष सत्साहित्य का एक ही मापदण्ड है वह यह कि किस सीमा तक कोई साहित्यिक कृति मानव को उच्चतर, सुन्दरतम, अधिक परिष्कृत एवं समर्थ बनाती है।"
__वही साहित्य प्रभविष्णु हो सकता है, जिसमें निम्न चार तत्त्वों का समावेश हो--१. जीवंत सत्य, २. स्वतंत्रता, ३. यथार्थ ४. क्रांति ।
आचार्य तुलसी का साहित्य इन सभी विशेषताओं को अपने भीतर समेटे हुए है। जीवंत सत्य
उन्होंने साहित्य की सामग्री एवं विषय रेक में रखी पुस्तकों से नहीं १. हजारी प्रसाद द्विवेदी ग्रंथावली, भा० ७, पृ० १३९,१६० २. वही, पृ० १६८
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