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गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन
साहित्य का स्वरूप
साहित्य मानव की अनुभूतियों, भावनाओं और कलाओं का साकार रूप है । इसमें भाषा के माध्यम से जीवन की अभिव्यक्ति होती है इसीलिए मैथ्यू आर्नोल्ड आदि पाश्चात्य विद्वानों ने साहित्य को जीवन की व्याख्या एवं आलोचना माना है। जहां तक जीवन की पहुंच है, वहां तक साहित्य का क्षेत्र है। जीवन-निरपेक्ष साहित्य अपना महत्त्व खो देता है अतः विद्वानों ने सत्साहित्य की यही कसौटी बताई है कि वह जीवन से उत्पन्न होकर सीधे मानव जीवन को प्रभावित करता है । दो और दो चार होते हैं, यह चिर सत्य है पर साहित्य नहीं है क्योंकि जो मनोवेग तरंगित नहीं करता, परिवर्तन एवं कुछ कर गुजरने की शक्ति नहीं देता, वह साहित्य नहीं हो सकता अतः अभिव्यक्ति जहां आनंद का स्रोत बन जाए, वहीं वह साहित्य बनता है।
प्रेमचंद अपने समय के ही नहीं, इस शताब्दी के प्रख्यात कथाकारों में से एक रहे हैं । उन्होंने साहित्य का जो स्वरूप हमारे सामने प्रस्तुत किया है उसे एक अंश में पूर्ण कहा जा सकता है। वे कहते हैं---"जिस साहित्य से हमारी सुरुचि नहीं जागे, आध्यात्मिक और मानसिक तृप्ति न मिले, हममें शक्ति व गति पैदा न हो, हमारा सौंदर्यप्रेम और स्वाधीनता का भाव जागृत न हो, जीवन की सचाइयों का प्रकाश उपलब्ध न हो, जो हममें सच्चा संकल्प और कठिनाइयों पर विजय पाने की सच्ची दृढ़ता उत्पन्न न करे, वह हमारे लिए अर्थपूर्ण नहीं है, उसे साहित्य की कोटि में परिगणित नहीं किया जा सकता।' उन्होंने साहित्य को समाज रूपी शरीर के मस्तिष्क के रूप में स्वीकार किया है।
___ साहित्य शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग भर्तृहरि ने नीतिशतक में किया है । साहित्य को हमारे प्राचीन मनीषियों ने सुकुमार वस्तु कहा है। रवीन्द्रनाथ टैगोर साहित्य के स्वरूप को दार्शनिक परिधान देते हुए कहते हैं--- "भाव का भाषा से, प्रकृति का पुरुष से, अतीत का वर्तमान से, दूर का निकट से तथा मस्तिष्क का हृदय से जो अंतरंग मिलन है, वही साहित्य है।" हजारी प्रसाद द्विवेदी का मंतव्य है-मनुष्य की सबसे सूक्ष्म और महनीय
१. प्रेमचंद के कुछ विचार, पृ० २५
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