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गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन
यही कारण है कि उनके प्रवचनों में शब्दों का आडम्बर नहीं, अपितु हृदय को झकझोरने वाली प्रदीप्त सामग्री होती है। प्रायोगिकता
प्रवचन में केवल सैद्धांतिक पक्ष की प्रस्तुति ही उन्हें अभीष्ट नहीं है वे उसे प्रयोग से बराबर जुड़ा रखना चाहते हैं। वे बात-बात में ऐसा प्रशिक्षण दे देते हैं, जिसे श्रोता या द्रष्टा जीवन भर नहीं भूल सकता।
लाडनूं का प्रसंग है। प्रवचन के बाद एक युवक ने सूचना देते हुए कहा- 'एक घड़ी (समय सूचक यन्त्र) की प्राप्ति हुई है। जिस किसी भाई की हो वह आकर ले जाए।' इतना सुनते ही आचार्यश्री ने स्मित हास्य बिखेरते हुए कहा- 'एक घड़ी मैंने भी आप लोगों के बीच खोई है। देखता हूं कौनकौन लाकर देता है ? सारा वातावरण हास्य से मुखरित ही नहीं हुआ वरन् अभिनव प्रेरणा से ओतप्रोत हो उठा । श्रोताओं को यह प्रशिक्षण मिल गया कि जो सुना है उसको आत्मसात् करके ही हम गुरुचरणों में सच्ची दक्षिणा समर्पित कर सकते हैं। संस्मरणों की मिठास
__उनके प्रवचनों में अध्यात्म एवं नीतिदर्शन का गूढ़ विश्लेषण ही नहीं होता, संस्मरणों एवं अनुभवों का माधुर्य भी होता है, जो कथ्य को इस भांति संप्रेषित करता है कि वर्षों तक के लिए वह घटना स्मृति-पटल पर अमिट बन जाती है।
रायपुर के भयंकर अग्नि-परीक्षा-कांड के विरोध के पश्चात् चूरू चातुर्मास में स्वागत समारोह के अवसर पर वे कहते हैं --"लोग कहते हैं कि अन्तरिक्ष में जाने पर चंद्रयात्री भारहीनता का अनुभव करते हैं पर हम तो पृथ्वी पर ही भारहीन जीवन जी रहे हैं।" इतने विशाल संघ के नेता की यह प्रसन्न अभिव्यक्ति निश्चित रूप से उन लोगों के लिए प्रेरक है, जो अपने परिवार के कुछ सदस्यों का नेतृत्व करने में ही खेदखिन्न एवं तनावयुक्त हो जाते हैं।
उन्हीं की भाषा में प्रस्तुत उनके जीवन का निम्न संस्मरण छोटी सी बात पर प्रतिक्रिया करके आपा खो देने वालों को प्रेरणा देने में पर्याप्त होगा- "सन् १९७२ की बात है। हमने रतनगढ़ से प्रस्थान किया। जून-जुलाई की तपती दोपहरी थी। विरोधी वातावरण के कारण स्थान नहीं मिला । हमारे विरोध में भ्रांतिपूर्ण बातें कही गयीं, अतः विरोध भड़क उठा। पर हमें आचार्य भिक्षु के जीवन से सीख मिली थी-"जो हमारा हो विरोध, हम उसे समझे विनोद ।" रतनगढ़ गांव की सीमा पर
जैन दर्शन में घड़ी समय के एक विभाग/४८ मिनिट को कहते हैं ।
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