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तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण
" साहित्य-सृजन का मार्ग सरल नहीं, कांटों का मार्ग है । आलोचना और निन्दा की परवाह न करते हुए साहित्यकार को जीवन शुद्धि के राजमार्ग पर जनता को ले जाना होता है, स्वार्थपरता, भोगलिप्सा और आडम्बर के विषैले वातावरण से आकुल लोक-जीवन में निःस्वार्थता, त्याग और सादगी का मृत ढालना होता है, तभी उसका कर्तृत्व, साधना और सृजन सफल है ।"
आ० तुलसी की लेखनी यथार्थ का पुनसृजन करती हैं अतः वे क्रांतद्रष्टा साहित्यकार तो हैं ही पर अध्यात्म-योगी एवं अप्रतिबद्ध बिहारी होने के कारण साहित्यकार से पूर्व अध्यात्म के साधक भी हैं । इसी कारण उनके साहित्य को बहुत व्यापक परिवेश मिल गया है । आचार्य तुलसी जैसे साहित्यकार आज कम हैं जिनके साहित्य से भी अधिक भव्य, विशाल, आकर्षक एवं तेजस्वी उनका वास्तविक रूप है तथा जो केवल अध्यात्म के परिप्रेक्ष्य में ही सारी चर्चाएं करते हैं और अध्यात्म को मध्यबिंदु रखकर ही सारा ताना-बाना बुनते हैं । जीवन के प्रति प्रबल आत्मविश्वास, सत्य के प्रति अटूट आस्था और निरन्तर अध्यात्म में रहने का अभ्यासजीवन की ये विशेषताएं उनके साहित्य में जुड़ने के कारण वे पठनीय एवं सक्षम साहित्यकार बन गए हैं। प्रसिद्ध उपन्यासकार नरेन्द्र कोहली का मंतव्य है कि पठनीयता के लिए लेखक की सरलता, सहजता एवं ऋजुता एक अनिवार्य गुण है । यदि लेखक के मन में ग्रंथियां नहीं हैं, कहीं दुराव- छिपाव नहीं है, कहीं अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने का प्रयत्न नहीं है, तो निश्चित रूप से वह लेखक सहज और ऋजु होता है । पाठक उसकी योग्यता तथा ईमानदारी पर विश्वास करता है, शंका बीच में रह नहीं पाती अतः वह उसे पढ़ता चला जाता है ।' आचार्य तुलसी सहजता और ऋजुता के सर्वश्रेष्ठ उदाहरण हैं । साहित्य सृजन उनके लिए न जीविकोपार्जन का साधन है न व्यसन बल्कि वह उसे अपनी साधना का ही एक अंग मानते हैं । इसी कारण उनका साहित्य सहजता एवं ऋजुता से पूरी तरह ओतप्रोत है ।
अ०
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वैसे ही तेरापंथ धर्मसंघ
वे स्वयं न केवल सफल साहित्य स्रष्टा हैं बल्कि उन्होंने अनेकों को इस मार्ग में प्रस्थित करके प्रेरक एवं प्रभावी साहित्यकारों की एक पूरी श्रृंखला खड़ी की है । जैसे पाश्चात्य जगत् में होमर साहित्य के आदिस्रष्टा माने जाते हैं। में आचार्य तुलसी को हिन्दी साहित्य सृजन का आदि है । उनकी प्रेरणा ने साहित्य की जो अविरल धार बहाई है, समाज के लिए आश्चर्य एवं प्रेरणा की वस्तु हो सकती है। साल पहले उठने वाला प्रश्न कि 'क्या पढ़ें' अब 'क्या-क्या पढ़ें'
प्रेरक कहा जा सकता
वह किसी भी
आज से ४० में रूपायित हो
१. प्रेमचंद पृ. ३९
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