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________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन किया है। उनके अहिंसक विचारों की विशदता और विपुलता का आकलन इस बात से किया जा सकता है कि उनकी प्रकाशित पुस्तकों में अहिंसा से सम्बन्धित लगभग २०० लेख हैं। उनके अहिंसक व्यक्तित्व के सन्दर्भ में प्रसिद्ध साहित्यकार यशपालजी का कहना है- "आचार्य तुलसी के पास कोई भौतिक बल नहीं, फिर भी वे प्रेम, करुणा एवं सद्भावना के द्वारा अहिंसक क्रांति का शंखनाद कर रहे हैं । विनोबा तो अन्तिम समय में ऐकांतिक साधना में लग गए पर आचार्य तुलसी के चरण ८० वर्ष में भी गतिमान् हैं। उनकी अहिंसक साधना अविराम गति से लोगों को सही इन्सान बनाने का कार्य कर रही है।" आचार्य तुलसी के कण-कण में अहिंसा का नाद प्रस्फुटित होता रहता है । किसी भी विषम परिस्थिति में हिंसा की क्रियान्विति तो दूर, उसका चिन्तन भी उन्हें मान्य नहीं है। लोक-चेतना में अहिंसा को जीवन-शैली का अंग बनाने के लिए उन्होंने भारत की स्वतंत्रता के साथ ही अणुव्रत आन्दोलन का सूत्रपात किया । कृतज्ञ राष्ट्र ने उनकी चार दशकों की तपस्या का मूल्यांकन किया और उन्हें (सन् १९९३ में) 'इन्दिरा गांधी पुरस्कार' से सम्मानित किया। पुरस्कार समर्पण के अवसर पर वे राष्ट्र को उद्बोधित करते हुए कहते हैं-“मैं अपने समूचे संघ एवं राष्ट्र से यही चाहता हूं कि सब जगह एकता और सद्भावना का विस्तार हो तथा देश में जितने भी विवादास्पद मुद्दे हैं, उन्हें अहिंसा के द्वारा सुलझाया जाए। अहिंसा के प्रचार-प्रसार में उनके आशावादी दृष्टिकोण की झलक निम्न पंक्तियों में देखी जा सकती है __ "कई बार लोग मुझसे पूछते हैं, आप अहिंसा का मिशन लेकर चल रहे हैं तो क्या आप सारे संसार को पूर्ण अहिंसक बना देंगे? उन्हें मेरा उत्तर होता है-- अब तक के इतिहास में ऐसा कोई युग नहीं आया, जबकि सारा संसार अहिंसक बना हो। फिर भी युग-युग में अहिंसक शक्तियां अपने-अपने ढंग से अहिंसा की प्रतिष्ठा के लिए प्रयत्न करती रही हैं । आज हम लोग भी वही प्रयास कर रहे हैं । पर मैं इस भाषा में नहीं सोचता कि हमारे इस प्रयास से सारा संसार अहिंसक या धार्मिक बन जाएगा। वस्तुतः सारे संसार के अहिंसक और धार्मिक बनने की वात कर्णप्रिय और लुभावनी तो है ही पर व्यावहारिक और सम्भव नहीं है। व्यावहारिक और सम्भव इतनी ही है कि हमारे प्रयास से कुछ प्रतिशत लोग अहिंसक और धार्मिक बन जाएं । पर इसके बावजूद भी हम अपने कार्य में सफल हैं। मैं तो यहां तक भी सोचता हूं कि यदि एक व्यक्ति भी हमारे प्रयत्न से अहिंसक या धार्मिक नहीं बनता है तो भी हम असफल नहीं हैं।' १. भोर भई, पृ० ३२-३३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003117
Book TitleAcharya Tulsi Sahitya Ek Paryavekshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages708
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size23 MB
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