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________________ १५८ आ तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण सबको एक कर देना असंभव है । ऐसी एकता में विकास के द्वार अवरुद्ध हो जाते हैं । अनेकता भी वही कीमती है, जो हमारी मौलिक एकता को किसी प्रकार का खतरा पैदा न करे ।" इसी बात को उदाहरण के माध्यम से प्रस्तुति देते हुए वे कहते हैं- " एक वृक्ष की अनेक शाखाओं की भांति एक राष्ट्र के अनेक प्रांत हो सकते हैं, पर उनका विकास राष्ट्रीयता की जड़ से जुड़कर रहने में है, जब भेद में अभेद को मूल्य देने की बात व्यावहारिक बनेगी, उसी दिन राष्ट्रीय एकता की सम्यक् परिणति होगी । वे कहते हैं" जहां विविधता एकता को विघटित करे, उसमें बाधक बने, को समाप्त करना आवश्यक हो जाता है । शरीर में कोई अवयव शरीर को नुकसान पहुंचाने लगे तो उसे काटने या कटवाने की मानसिकता हो जाती है । 112 उस विविधता 113 राष्ट्र की विषम स्थितियों एवं विघटनकारी तत्त्वों के विरुद्ध आचार्य तुलसी ने सशक्त आवाज उठाई है । राष्ट्रीय एकता को उन्होंने अपनी श्रम की बूंदों से सींचा है। अपने अठहत्तरवें जन्मदिन पर वे लाडनूं में देश की हिंसक स्थितियों को अहिंसक नेतृत्व प्रदान करने हेतु अपने दायित्व - बोध का उच्चारण इन शब्दों में करते हैं- " मैं राष्ट्रीय एकता परिषद् के एक सदस्य के नाते अपना दायित्व समझता हूं कि अपनी शक्ति देश की समस्याओं को सुलझाने में लगाऊं । मुझे लगता है कि हिंसा, आतंक, अपहरण और क्रूरता आदि समस्याओं से भी बड़ी समस्या है - मानवीय मूल्यों के प्रति अनास्था । इस दिशा में मुझे अणुव्रत के माध्यम से लोकतंत्र की शुद्धि हेतु और भी तीव्र गति से कार्य करना है ।" उनकी इसी सेवा का मूल्यांकन करते हुए भारत सरकार ने उन्हें राष्ट्रीय एकता परिषद् के सदस्य के रूप में मनोनीत किया है । राष्ट्रीय एकता के अनेक घटकों में एक घटक है-भाषा । इस संदर्भ में आचार्य तुलसी का मंतव्य है - " यदि देश की एक भाषा होती है तो हर प्रांत के व्यक्ति का दूसरे प्रांत के व्यक्ति के साथ सम्पर्क जुड़ सकता है । मैं मानता हूं कि देश की एकता के लिए राष्ट्र में एक भाषा का होना अत्यन्त आवश्यक है । "४ आचार्य तुलसी इस सत्य से परिचित हैं कि केवल भौगोलिक एकता के नाम पर राष्ट्रीय एकता को चिरजीवी नहीं बनाया जा सकता, फिर भी प्रांतवाद देश की अखंडता को विघटित करने में मुख्य कारण बनता है । वे अलगाववादी तत्त्वों को स्पष्ट शब्दों में कहते हैं- "हरेक प्रांत जब अपने १. विज्ञप्ति सं० ९९३ । २- ३. अणुव्रत पाक्षिक, १६ मई १९९० । ४. रश्मियां पृ० ८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003117
Book TitleAcharya Tulsi Sahitya Ek Paryavekshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages708
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size23 MB
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