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आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण हैं । आंतरिक आवाज वही प्रकट कर सकता है जो दृढ़ मनोबली और आत्मविजेता हो । उनकी निम्न अनुभूति हजारों-हजारों के लिए प्रेरणा का कार्य करेगी-“मेरे संयमी जीवन का सर्वाधिक सहयोगी और प्रेरक साथी कोई रहा है तो वह है-संघर्ष । मेरा विश्वास है कि मेरे जीवन में इतने संघर्ष न आते तो शायद मैं इतना मजबूत नहीं बन पाता। संघर्ष से मैंने बहुत कुछ सीखा है, पाया है। संघर्ष मेरे लिए अभिशाप नहीं, वरदान साबित हुए हैं।' इसो प्रसंग में उनका एक दूसरा वक्तव्य भी हृदय में आध्यात्मिक जोश भरने वाला है -"मैं कहूंगा कि मैं राम नहीं, कृष्ण नहीं, बुद्ध नहीं, महावीर नहीं, मिट्टी के दीए की भांति छोटा दीया हूं। मैं जलूंगा और अंधकार को मिटाने का प्रयास करूंगा।"
आचार्य तुलसी ने भौतिक वातावरण में अध्यात्म की लौ जलाकर उसे तेजस्वी बनाने का भगीरथ प्रयत्न किया है। उनकी दृष्टि में अपने लिए अपने द्वारा अपना नियन्त्रण अध्यात्म है। वे अध्यात्म साधना को परलोक से न जोड़कर वर्तमान जीवन से जोड़ने की बात कहते हैं। अध्यात्म का फलित उनके शब्दों में यों उद्गीर्ण है-अध्यात्म केवल मुक्ति का पथ ही नहीं, वह शांति का मार्ग है, जीवन जीने की कला है, जागरण की दिशा है और रूपांतरण की सजीव प्रक्रिया है।
कहा जा सकता है कि आचार्य तुलसी ऐसे सृजनधर्मा साहित्यकार हैं जिन्होंने प्राचीन मूल्यों को नए परिधान में प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है। उन्होंने साहित्य सृजन के लिए लेखनी उस काल में उठायी जब मानवीय मूल्यों का विघटन एवं बिखराव हो रहा था। भारतीय समाज पर पश्चिमी मूल्य हावी हो रहे थे। उस समय में प्रतिनिधि भारतीय सन्त लेखक के दायित्व का निर्वाह करके उन्होंने भारतीय संस्कृति के मूल्यों को जीवित रखने एवं स्थापित करने का प्रयत्न किया है ।
वे केवल अपने अनुयायियों को ही नहीं, सम्पूर्ण साहित्य जगत् को भी समय-समय पर सम्बोधित करते रहते हैं । आज के साहित्यकारों की त्रुटिपूर्ण मनोवृत्ति पर अंगुलि-निर्देश करते हुए वे कहते हैं- "आज के लेखक की आस्था शृंगार रस प्रधान साहित्य के सृजन में है क्योंकि उसकी दृष्टि में सौन्दर्य ही साहित्य का प्रधान अंग है । लेकिन मैं मानता हूं कि सौन्दर्य से भी पहले सत्य की सुरक्षा होनी चाहिये । सत्य के बिना सौन्दर्य का मूल्य नहीं हो सकता।
प्रेमचंद्र ने सत्य को साहित्य के अनिवार्य अंग के रूप में ग्रहण किया
१. एक बूंद : एक सागर, पृ० १७३० २. एक बूंद : एक सागर, पृ० १७१२
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