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________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन पुष्टि यों करते हैं-'मन यदि उलझनों से भरा है तो भाषा की गति अत्यन्त धीमी, दुर्बोध और चकरीली हो जाती है।' आचार्य तुलसी का मन तनाव और उलझनों से कोसों दूर रहता है अतः उनकी भाषा में विसंगति का प्रसंग ही नहीं आता । साधना की आंच में तपा हुआ उनका मानस कभी कथनी और करणी में द्वैत नहीं डालता।। "जिस दिन मानव को वस्तु की अभिव्यक्ति में विलक्षणता लाने की गति मति जागी, उसी दिन से शैली का विवेचन तथा विचार प्रारम्भ हुना।" आचार्य क्षेमचंद्र सुमन की यह अभिव्यक्ति शैली के प्रारंभ की कथा कहती है पर जब से भादमी ने किसी विषय में सोचना या लिखना प्रारंभ किया तभी शैली का प्रादुर्भाव हो गया क्योंकि शब्दों की कलात्मक योजना ही शैली है । "शैली भाषा की अभिव्यंजना शक्ति की परिचायक है।' अंग्रेजी कवि पोप शैली को व्यक्ति के विचारों की पोशाक मानते हैं किन्तु शैली विचारक मरे इससे भी आगे बढ़कर कहते हैं कि शैली लेखक के विचारों की पोशाक नहीं, अपितु जीव है, जिसके अन्दर मांस, हड्डी और खून है ।" शैली के परिप्रेक्ष्य में ही उनका एक अन्य उद्धरण भी मननीय है-'शैली भाषा का वह गुण है, जो लाघव से रचयिता के मनोभावों, विचारों अथवा प्रणाली का संवहन करती है। शैली किसी से उधार मांगी या दी नहीं जाती क्योंकि वह किसी भी साहित्यकार के व्यक्तित्व का अभिन्न अंग होती है। यही कारण है कि किसी भी रचना को पढ़ते ही यह ज्ञान किया जा सकता है कि यह अमुक व्यक्ति की रचना है । शैली साहित्य की उच्चतम निधि है । पाश्चात्त्य एवं प्राच्य विद्वानों की सैकड़ों परिभाषाएं शैली के बारे में मिलती हैं पर प्रसिद्ध समालोचक बाबू गुलाबराय ने दोनों मतों का समन्वय करके इसे मध्यम मार्ग के रूप में ग्रहण किया है । वे शैली को न नितान्त व्यक्तिपरक मानते हैं और न वस्तुपरक ही। उनका मानना है कि शैली में न तो इतना निजीपन हो कि वह सनक की हद तक पहुंच जाए और न इतनी सामान्यता हो कि नीरस और निर्जीव हो जाए । शैली अभिव्यक्ति के उन गुणों को कहते हैं, जिन्हें लेखक या कवि अपने मन के प्रभाव को समान रूप से दूसरों तक पहुंचाने के लिए अपनाता है। __ आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार उपयुक्त शब्दों का चुनाव, स्वर और व्यंजनों को मधुर योजना, वाक्यों का सही विन्यास तथा विचारों १. साहित्य विवेचन, पृ० ४४ २. आधुनिक गद्य एवं गद्यकार, पृ० १ ३-४. M. Murra, Problems of style, पृ० ७१,१३६ ५. सिद्धांत और अध्ययन, पृ० १९० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003117
Book TitleAcharya Tulsi Sahitya Ek Paryavekshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages708
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size23 MB
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