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आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण
का विकास शैली के मौलिक तत्व हैं। यही कारण है कि कोई भी साहित्यकार केवल सुन्दर भावों से युक्त होने पर ही अच्छा साहित्यकार नहीं हो सकता, उसमें प्रतिपादन शैली का सौष्ठव होना भी अनिवार्य है। यदि शैली सुघड़ है तो वक्तव्य वस्तु में सार कम होने पर भी वह ग्रहणीय बन जाती है ।
पाश्चात्त्य विद्वानों के अनुसार अच्छी शैली के लिए लेखक के व्यक्तित्व में विचार, ज्ञान, अनुभव तथा तर्क इत्यादि गुणों की अपेक्षा होती है। जो व्यक्तित्व जितना सप्राण, विशाल, संवेदनशील और ग्रहणशील होगा, उसकी शैली उतनी ही विशिष्ट होगी क्योंकि शैली को व्यक्तित्व का प्रतिरूप कहा जाता है (स्टाइल इज द मैन इटसेल्फ) । समर्थ व्यक्तित्व अपनी प्रत्येक रचना में अपने सम्पूर्ण व्यक्तित्व के साथ प्रतिबिम्बित रहता है। लेखक का प्रत्येक वाक्य, प्रत्येक पद, प्रत्येक शब्द उसके नाम का जयघोष करता सुनाई देता है।
- यद्यपि शैली व्यक्तित्व से प्रभावित होती है फिर भी कुछ ऐसे तत्त्व हैं, जो उसे विशिष्ट बनाते हैं
१. देश और काल की स्थितियां शैली को सबसे ज्यादा प्रभावित करती हैं । अगर तुलसी, सूर, बिहारी या आचार्य भिक्षु इस युग में आते
तो उनके कहने या लिखने का तरीका बिलकुल भिन्न होता । २. वक्तव्य विषय को हृदयंगम कराने हेतु विविध रूपकों, कथाओं, दोहों
एवं सोरठों का प्रयोग । ३. विविध शास्त्रीय तत्त्वों का उचित सामंजस्य । ४. विषय और विचार में तादात्म्य । ५. सत्यस्पर्शी कल्पना। ६. लेखक के मन और आत्मा, बुद्धि और भावना तथा हृदय और
मस्तिष्क का सामंजस्य एवं संतुलन । ७. व्यंजना ऐसी हो, जो सूक्ष्म से भी सूक्ष्म स्थिति में ले जाने के लिए पाठक को चुनौती दे, जिसे पढ़े बिना पाठक प्रसंग छोड़ने में असमर्थ
हो जाए। ८. वाक्य विन्यास जटिल न होकर सरल हो, जिसको पढ़कर हर वर्ग के पाठक को वही आनन्द हो जो किसी कठिनाई पर विजय पाने वाले को होता है।
आचार्य तुलसी की लेखनशैली की अपनी विशेषताएं हैं। उन्होंने अपने हर मनोगत भावों की अभिव्यक्ति इतने रमणीय, आकर्षक और प्रभावोत्पादक ढंग से दी है कि उनकी रचना पढ़ते ही पाठक के भीतर अभिनव हर्ष एवं शक्ति का संचार होने लगता है। शैलीगत नवीनता उनको प्रिय है इसलिए वे अपने भावों को व्यक्त करते हुए कहते हैं---"नए रूप, नयी विधा
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