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________________ ३४ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण 'खणं जाणाहि' महावीर के इस उद्बोधन ने लाखों को अप्रमत्त जीवन जीने का दिशा बोध दे दिया तथा 'अप्पदीवो भव' बुद्ध की इस अनुभवपूत वाणी ने हजारों के तमस्मय जीवन को भालोक से भर दिया। आचार्य तुलसी की वाणी आत्मिक अनुभूति की वाणी है। उनके शब्दों में अध्यात्म की वह तेजस्वी शक्ति है, जो क्रूर से क्रूर व्यक्ति का हृदयपरिवर्तन करने में सक्षम है। उन्होंने अपने ७० साल के संयमी जीवन में हजारों बार प्रवचन किया है । लम्बी पदयात्राओं में युवावस्था के दौरान तो उन्होंने दिन में चार-चार या पांच-पांच बार भी जनता को उद्बोधित किया है । एक ही तत्त्व को अलगअलग व्यक्तियों को बार-बार समझाने पर भी उनका मन और शरीर कभी थकान की अनुभूति नहीं करता। उनके प्रवचन करने का उद्देश्य आत्मविकास एवं स्वानंद है । वे प्रवचन करके किसी पर अनुग्रह का भार नहीं लादते वरन् उसे साधना का ही एक अंग मानते हैं। इस बात की अभिव्यक्ति वे अनेकों बार देते हैं कि मेरे उपदेश और प्रवचन को यदि एक भी व्यक्ति ग्रहण नहीं करता है तो मुझे किचित् भी हानि या निराशा नहीं होती क्योंकि उपदेश देना मेरा पेशा नहीं वरन् साधना है, वह अपने आप में सफल है। उनकी प्रवचन साधना मात्र वस्तुस्थिति की व्याख्या नहीं अपितु साधना एवं दर्शन से व्यक्ति और समाज को परिवर्तित कर देने की चेष्टा है। इसी कारण अन्यान्य अनेक महत्त्वपूर्ण कार्यों में व्यस्त रहने पर भी उनका प्रतिदिन प्रवचन का क्रम नहीं टूटता । एक संत के मन में निहित समष्टि-कल्याण की भावना का निदर्शन निम्न वाक्यों में पाया जा सकता है-"मैं चाहता हूं जन-जन में सद्गुण भर जाएं, पापों से घुटती हुई दुनिया को प्रकाश मिले । मुझे जो जागृति मिली है, वह औरों को भी दे सकूँ ऐसी मेरी हार्दिक इच्छा है । इसके लिए मैं सतत प्रयत्नशील हूं।'' वे केवल अपने श्रद्धालुओं के लिए ही प्रवचन नहीं करते, मानव मात्र की मंगल, भावना से ओतप्रोत होकर ही उनके प्रवचनों की मंदाकिनी प्रवाहित होती है । वे बार-बार इन विचारों की अभिव्यक्ति देते हैं कि केवल जैन या केवल ओसवालों में बोलकर मैं इतना खुश नहीं होता, जितना सर्वसाधारण में बोलकर होता हूं।" एक बार उनकी प्रवचन सभा में कुछ हरिजन भाई भी अग्रिम पंक्ति में आकर बैठने लगे। परिपार्श्व में बैठे महाजनों ने उन्हें संकेत से दूर बैठकर सुनने की बात कही । आचार्य तुलसी का करुणा प्रधान मानस उस भेद को १. जैन भारती, १४ अक्टू० १९६२ २. जैन भारती, १९ नवम्बर १९५३ ३. एक बूंद : एक सागर, पृ० १६९२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003117
Book TitleAcharya Tulsi Sahitya Ek Paryavekshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages708
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size23 MB
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