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गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन
सह नहीं सका । तत्काल उस कृत्य की तीखी आलोचना करते हुए उन्होंने कहा-"धर्मस्थान हर व्यक्ति के लिए खुला रहना चाहिए । जाति और रंग के आधार पर किसी को अस्पृश्य मानना, उन्हें मानवीय अधिकारों से वंचित रखना मानवता का अपराध है। धर्म के क्षेत्र में जातिजन्य उच्चता नहीं, कर्मजन्य उच्चता होती है । धार्मिक उच्चता हरिजन या महाजन सापेक्ष नहीं है । मेरे प्रवचनस्थान पर किसी भी जाति के लोगों को प्रवचन सुनने का निषेध नहीं हो सकता। यदि कोई अनुयायी हरिजन को प्रवचन सुनने का निषेध करता है, इसका अर्थ यह है कि वह मुझे प्रवचन करने का निषेध करता है । मैं तो देश के हर वर्ग, जाति और सम्प्रदाय के लोगों से इंसानियत और भाईचारे के नाते मिलकर उन्हें जीवन का लक्ष्य परिचित कराना चाहता
इस प्रकार वर्गभेद, जातिभेद, रंगभेद और सम्प्रदायभेद के बढ़ते उन्माद को रोककर भावात्मक एकता की स्थापना भी उनके प्रवचन का मुख्य उद्देश्य रहा है।
उन्होंने अपने प्रवचन में समाज सेवा और राष्ट्र की विषम स्थितियों एवं विसंगतियों पर दुःख प्रकट किया है पर कहीं भी निराशा का स्वर नहीं है । इस संदर्भ में उनकी निम्न उक्ति अत्यन्त मार्मिक है-"कई लोग संसार को स्वर्ग बनाना चाहते हैं किंतु वह बनता नहीं । मैं ऐसी कल्पना नहीं करता यही कारण है कि मुझे निराशा नहीं होती। मैं चाहता हूं कि मनुष्य लोक कहीं राक्षसलोक या दैत्यलोक न बन जाए। उसे यदि प्रवचन द्वारा मनुष्यलोक की मर्यादा में रखने में सफल हो गए तो मानना चाहिए हमने बहुत कुछ कर लिया।" उनके इस संतुलित दृष्टिकोण के कारण यह प्रवचन साहित्य जीवन के साथ ताजा सम्बन्ध स्थापित करता है।
वे हर तथ्य का प्रतिपादन इतनी मनोवैज्ञानिकता के साथ करते हैं कि उसे पढ़ने और सुनने पर लगता है कि वह पाठक व श्रोता की अपनी ही अनुभूति है। प्रवचन की विषयवस्तु
उनके प्रवचनों के विषय न तो इतने गहन गंभीर है कि उन्हें समझने के लिए किसी दूसरे की सहायता लेनी पड़े और न इतने उथले हैं कि उनमें बच्चों का बचकानापन झलके । चाहे धर्म हो या दर्शन, मनोविज्ञान हो या इतिहास, राजनीति हो या सिद्धान्त, अध्यात्म हो या विज्ञान लगभग सभी विषयों पर कलात्मक प्रस्तुति उनके प्रवचनों में हुई है। अत: उनके प्रवचनों में विषय की विविधता है। वे नदी की धारा की भांति प्रवहमाद १. जैन भारती, ३० अप्रैल १९६१
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