SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 211
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन १६७ २. स्नेहशीलता, ३. श्रमशीलता, ४. पारस्परिक विश्वास । उनका विश्वास है कि ये चार तत्त्व जिस परिवार के सदस्यों में हैं, वहां सैकड़ों सदस्यों की उपस्थिति में भी विघटन एवं तनाव की स्थिति घटित नहीं हो सकती । पाश्चात्त्य विद्वान् मैकेंजी कहते हैं- "यदि परिवार को छोटा राज्य कहें तो शिशु उसका वास्तविक सम्राट् है ।" बालकों के निर्माण में परिवार की अहं भूमिका रहती है। जिस परिवार में बच्चों के संस्कार - निर्माण की ओर ध्यान नहीं दिया जाता, कालान्तर में उस परिवार में सुख समृद्धि एवं विकास के द्वार अवरुद्ध हो जाते हैं । आज समाज शास्त्री यह स्पष्ट उद्घोषणा कर चुके हैं कि जैसा परिवार होगा, वैसा ही बालक का व्यक्तित्व निर्मित होगा । आचार्य तुलसी की निम्न प्रेरणा अभिभावकों को दायित्वबोध कराने में सक्षम है..." आश्चर्य है कि रोटी कपड़े के लिए मनुष्य जब इतने कष्ट सह सकता है तो सन्तान को संस्कारी बनाने की ओर उसका ध्यान क्यों नहीं जाता ? "3 सामाजिक रूढ़ियां अंधविश्वास और रूढ़ियां किसी न किसी रूप में सर्वत्र रहेंगी । यदि उसके विरोध में आवाज उठती रहे तो समाज जड़ नहीं बनता । आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी कहते हैं- " साहित्य सामाजिक मंगल का विधायक है । यह सत्य है कि वह व्यक्ति विशेष की प्रतिभा से रचित होता है किन्तु और भी अधिक सत्य यह है कि प्रतिभा सामाजिक प्रगति की ही उपज है ।"* आचार्य तुलसी ने समाज से पराङमुख होकर अपनी लेखनी एवं वाणी का उपयोग नहीं किया। समाज की किसी भी रूढ़ि या गलत परम्परा को अनदेखा नहीं किया । यही कारण है कि उनके पूरे साहित्य में समाज के सभी वर्गों की सामाजिक एवं धार्मिक कुरूढ़ियों पर प्रहार करने वाले हजारों वक्तव्य हैं । समाज की समस्याओं के बारे में आचार्य तुलसी नवीन सन्दर्भ में सोचने, देखने व परखने में सिद्धहस्त हैं । उन्होंने समाज की इस विवेक दृष्टि को खोलने का प्रयत्न किया कि सभी पूर्व मान्यताओं को नवीन कसौटियों पर नहीं कसा जा सकता । पुरानी चौखट पर नवीन तस्वीर को नहीं मढा जा सकता । उसमें भी कुछ युगीन एवं अपेक्षित संशोधन आवश्यक हैं । कहा जा सकता है कि उनके साहित्य में प्राचीन परम्परा और युगचेतना एक साथ साकार देखी जा सकती है । सामाजिक परम्पराओं के बारे में उनका चिन्तन स्पष्ट है कि १. एक बूंद : एक सागर, पृ० १४१९ । २. विचार और तर्क, पृ० २४४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003117
Book TitleAcharya Tulsi Sahitya Ek Paryavekshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages708
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy