SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 212
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आ तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण सामाजिक परम्पराएं एवं रीति-रिवाज एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में संक्रांत होते हैं और समाज को जोड़कर रखते हैं । पर जब उन परम्पराओं और रीति-रिवाजों में अपसंस्कृति का मिश्रण होने लगे, आडम्बर और प्रदर्शन होने लगे तो वे अपनी सांस्कृतिक गरिमा खो देते हैं ।"" इन क्रांत विचारों के कारण आचार्य तुलसी को रूढ़ि किसी भी क्षेत्र में प्रिय नहीं है । अच्छी से अच्छी बात में भी उनको यह आशंका हो जाए कि यह आगे जाकर रूढ़ि या देखादेखी का रूप ले सकती है तो वे स्थिति आने से पूर्व ही समाज को सावचेत कर उसमें नया उन्मेष लाने की बात सुभा देते हैं । आचार्य तुलसी हर परम्परा को अंधविश्वास या रूढ़ि नहीं मानते, क्योंकि वे मानते हैं कि सत्य अनन्त है अतः बुद्धिगम्य भाग को छोड़कर शेष विपुल सत्य को अन्धविश्वास कहना उचित नहीं है । पर जब उसमें अवांछनीय तत्त्व प्रवेश कर जाते हैं, तब समाज को दिशादर्शन देते हुए उनका कहना है -- "जिस परम्परा की अर्थवत्ता समाप्त हो जाए, जो रूढ़ि का रूप ले ले, जिसके कारण व्यक्ति या समाज पर आर्थिक दबाव पड़े और जो बुद्धि एवं आस्था के द्वारा भी समझ का विषय न बने, उस परम्परा का मूल्य एक शव से अधिक नहीं हो सकता ।" १६८ परिवर्तन एवं अनुकरण के बारे में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की निम्न उक्ति अत्यन्त मार्मिक है - " लज्जा प्रकाश ग्रहण करने में नहीं, अन्धानुकरण में होनी चाहिए । अविवेक पूर्ण ढंग से जो भी सामने पड़ गया उसे सिर माथे चढा लेना, अन्धभाव से अनुकरण करना जातिगत हीनता का परिणाम है। जहां मनुष्य विवेक को ताक पर रखकर सब कुछ ही अंधभाव से नकल करता है, वहां उसका मानसिक दैन्य और सांस्कृतिक दारिद्र्य प्रकट होता है। जहां सोच समझकर ग्रहण करता है" "वहां वह अपने जीवन्त स्वभाव का परिचय देता है ।"" आचार्य तुलसी की निम्न उक्ति रूढ़ एवं अन्धविश्वासी चेतना को परिवर्तन की प्रेरणा देने में पर्याप्त है - "समाज सदा परिवर्तनशील है अतः समय-समय पर उपयुक्त परिवर्तन के लिए हमें सदैव तैयार रहना चाहिए अन्यथा जीवन रूढ़ बन जाएगा और अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ेगा । 13 आचार्य तुलसी समाज को अनेक बार चुनौती दे चुके हैं -- सामाजिक कुरूढ़ि एवं अन्धविश्वासों से समाज इतना जर्जर, दुःखी, निष्क्रिय, जड़ और सत्त्वहीन हो जाता है कि वह युग की किसी चुनौती को फेल नहीं १. एक बूंद : एक सागर, पृ० ८५२ । २. हजारीप्रसाद द्विवेदी - ग्रन्थावली - भाग ७, पृ० १३८ । ३. जैन भारती, १६ अग० १९६९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003117
Book TitleAcharya Tulsi Sahitya Ek Paryavekshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages708
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy