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________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन १६९ सकता । यही कारण है कि वे समाज में व्याप्त दुर्बलता, कुरीति एवं कमजोरी की तीखी आलोचना करते हैं पर उस आलोचना के पीछे उनका प्रगतिशील एवं सुधारवादी दृष्टिकोण रहता है, जो कम लोगों में मिलता है। निम्न वार्तालाप उनके व्यक्तित्व की उसी छवि को अंकित करता है एक कवि ने आचार्य तुलसी से पूछा- आप धर्मगुरु हैं ? राजनीतिज्ञ हैं या समाज सुधारक ? आचार्य तुलसी ने उत्तर दिया – “धर्मगुरु तो आप मुझे कहें या नहीं, पर मैं साधक हूं, समाज सुधारक भी हूं।" साधक होने के कारण उनका सुधारवादी दृष्टिकोण किसी कामना या लालसा से संपृक्त नहीं है, यही उनके सुधारवादी दृष्टिकोण का महत्त्वपूर्ण पहलू है । दहेज दहेज की परम्परा समाज के मस्तक पर कलंक का अमिट धब्बा है । इस विकृत परम्परा से अनेक परिवार क्षत-विक्षत एवं प्रताड़ित हुए हैं । अनेक कन्याओं एवं महिलाओं को असमय में ही कुचल दिया गया है । आचार्य तुलसी की प्रेरणा ने लाखों परिवारों को इस मर्मान्तक पीड़ा से मुक्त ही नहीं किया वरन् सैकड़ों कन्याओं के स्वाभिमान को भी जागृत करने का प्रयत्न किया है, जिससे समाज की इस विषैली प्रथा के विरुद्ध वे अपनी विनम्र एवं शालीन आवाज उठा सकें । राणावास में मेवाड़ी बहिनों के सम्मेलन में कन्याओं के भीतर जागरण का सिंहनाद करते हुए वे कहते हैं"दहेज वह कैंसर है, जिसने समाज को जर्जर बना दिया है । इस कष्टसाध्य बीमारी का इलाज करने के लिए बहिनों को कुर्बानी के लिए तैयार रहना होगा । आप लोगों में यह जागृति आए कि जहां दहेज की मांग होगी, ठहराव होगा, वहां हम शादी नहीं करेंगी । आजीवन ब्रह्मचारिणी रहकर जीवन व्यतीत करेंगी, तभी वांछित परिणाम आ सकता है ।" दहेजलोलुप लोगों की विवेक चेतना जगाते हुए आचार्य तुलसी कहते हैं—“कहां तो कन्या का गृहलक्ष्मी के रूप में सर्वोच्च सम्मान और कहां विवाह जैसे पवित्र संस्कार के नाम पर मोल तोल ! यह कुविचार ही नहीं, कुकर्म भी है ।"" आचार्य तुलसी ने समाज की इस कुप्रथा के विविध रूपों को पैनेपन के साथ उकेरकर वेधक प्रश्नचिह्न भी उपस्थित किए हैं "दहेज की खुली मांग, ठहराव, मांग पूरी करने की बाध्यता, प्राप्त दहेज का प्रदर्शन और टीका-टिप्पणी -- इससे आगे बढ़कर देखा जाए तो नवोढा के मन को व्यंग्य बाणों से छलनी बना देना, उसके पितृपक्ष पर टोंट कसना, बात-बात में उसका अपमान करना आदि क्या किसी शिष्ट और संयत मानसिकता की १. एक बूंद : एक सागर, पृ० ८५३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003117
Book TitleAcharya Tulsi Sahitya Ek Paryavekshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages708
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size23 MB
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