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________________ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण अपने भीतर बंद नहीं रख पाता । मानव का अंतर भी जब रस और आनंद से आप्लावित हो जाता है तो वह गा उठता है, काव्य करने बैठता है, प्रवचन देता है तथा तथ्यात्मक जगत् से सामग्री एकत्रित करके छंदों में, स्वरों में, अनुच्छेदों में, परिच्छेदों में, सर्गों में, अंकों में अपना उच्छलित आनंद भर देता है और श्रोता तथा पाठक को भी उस आनन्द में सराबोर कर देता है।" हजारीप्रसाद द्विवेदी द्वारा अनुभूत यह आनंद आचार्य तुलसी के साहित्य में पदे-पदे पाया जाता है। उनका काव्य साहित्य तो मानो आनंद का सागर ही है जिसमें निमज्जन करते-करते पाठक अलौकिक अनुभूति से अनुप्रीणित हो जाता है। आचार्य तुलसी ने अपने साहित्य में ऐसे चिरन्तन सत्यों को उकेरा है, जिसके समक्ष देश और काल का आवरण किसी भी प्रकार का व्यवधान उपस्थित करने में अक्षम और असफल रहा है। उन्होंने मानव-मन और बाह्य जीवन में बिखरे संघर्षों का चित्रण इतनी कुशलता से किया है कि वह साहित्य सार्वजनिक एवं सार्वकालिक बन गया है। विजयेन्द्र स्नातक उनके साहित्य के बारे में अपनी टिप्पणी व्यक्त करते हुए करते हैं-'मैं निःसंकोच भाव से कह सकता हूं कि आचार्य श्री की वाणी सदैव किसी महत्त्वपूर्ण अर्थ का अनुगमन करती है।' उनका साहित्य इसलिए महत्त्वपूर्ण नहीं कि वह विपुल परिमाण में है बल्कि इसलिए उसका महत्त्व है कि मनुष्य को सच्चरित्र बनाने का बहुत बड़ा लक्ष्य उसके साथ जुड़ा हुआ है । वे ऐसे सृजनधर्मा साहित्य स्रष्टा हैं, जिनके अंतःकरण में करुणा का स्रोत कभी सूखता नहीं। समाज को बदलकर उसे नए सांचे में ढालने की प्रेरणा उनके सांससांस में रमी हुई है। समाज की विसंगतियों की इतनी सशक्त अभिव्यक्ति शायद ही किसी दूसरे लेखक ने की हो । वे इस बात में आस्था रखते हैं कि यदि समाज की बुराइयों और विकृत परम्पराओं में परिवर्तन नहीं आता है तो उसमें साहित्यकार भी कम जिम्मेवार नहीं है। आचार्य तुलसी ने केवल उन्हीं तथ्यों या समस्याओं को प्रस्तुति नहीं दी है, जिसे समाज पहले ही स्वीकृति दे चुका हो। उन्होंने अनेक विषयों में समाज को नया चिंतन एवं दिशादर्शन दिया है अतः बार-बार पढ़ने पर भी उनका साहित्य नवीन एवं मौलिक प्रतीत होता है । कहीं-कहीं तो समाज की विकृतियों को देखकर वे अपनी पीड़ा को इस भांति व्यक्त करते हैं कि पाठक उसे अपनी पीड़ा मानने को विवश हो जाता हैमैं बहुत बार देखता हूं कि मुझे थोड़ा-सा जुखाम हो जाता है, ज्वर हो जाता है, श्वास भारी हो जाता है, पूरे समाज में चिंता की लहर दौड़ १. एक बूंद : एक सागर, भा० १, भूमिका पृ० १८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003117
Book TitleAcharya Tulsi Sahitya Ek Paryavekshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages708
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size23 MB
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