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गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन
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जाती है । मेरी थोड़ी सी वेदना से पूरा समाज प्रभावित होता है। किंतु मेरे मन में कितनी पीड़ाएं है क्या इसकी किसी को चिन्ता है ? ""
वे उसी साहित्य के वैशिष्ट्य को स्वीकारते हैं जो साम्प्रदायिकता, पक्षपात एवं अश्लीलता आदि दोषों से विहीन हो । यही कारण है कि सम्प्रदाय के घेरे में रहने पर भी उनका चिंतन कहीं भी साम्प्रदायिक नहीं हो पाया है । लोग जब उन्हें एक सम्प्रदाय के कटघरे में बांधकर केवल तेरापंथ के आचार्य के रूप में देखते हैं तो उनकी पीड़ा अनेक बार इन शब्दों में उभरती है — "लोग जब मुझे संकीर्ण साम्प्रदायिक नजरिए से देखते हैं तो मेरी अंतर आत्मा अत्यंत व्यथित होती है । उस समय मैं आत्मालोचन में खो जाता हूंअवश्य मेरी साधना में कहीं कोई कमी है, तभी तो मैं लोगों के दिलों में विश्वास पैदा नहीं कर सका।"
उनकी लेखनी एवं वाणी धर्म और संस्कृति के सही स्वरूप को प्रकट करने के लिए चली है । उनके सार्थक शब्द मृतप्रायः नैतिकता को पुनरुज्जीवित करने के लिए निकले हैं। उनका साहित्य समाज में समरसता, समन्वय और एकता लाने के लिए जूझता है । सस्ती लोकप्रियता, मनोरंजन एवं व्यवसायबुद्धि से हटकर उन्होंने वह आदर्श साहित्य-संसार को दिया है, जो कभी धूमिल नहीं हो सकता ।
उनके साहित्य में प्रौढ़ता एवं गहनता का कारण है-गंभीर ग्रंथों का स्वाध्याय । वे स्वयं अपनी अनुभूति बताते हुए कहते हैं- " मेरा अपना अनुभव यह है कि जिसको एक बार गंभीर विषयों के आनंद का स्वाद आ जाए वह छिछले, विलासी एवं भावुकतापूर्ण साहित्य में कभी अवगाहित नहीं हो सकता ।"
कल की दृष्टि से उनके साहित्य का वैशिष्ट्य है - त्रैकालिकता । युग समस्या को उपेक्षित करने वाला, उसकी मांग न समझने वाला साहित्य अनुपादेय होता है । केवल वर्तमान को सम्मुख रखकर रचा जाने वाला साहित्य युग - साहित्य होने पर भी अपना शाश्वत मूल्य खो देता है । वह जितने वेग से प्रसिद्धि पाता है उतने ही वेग से मूल्यहीन हो जाता है । इसी दृष्टि को ध्यान में रखकर उन्होंने अपने साहित्य में युगसत्य और चिरन्तन सत्य का समन्वय करके अतीत के प्रति तीव्र अनुराग, वर्तमान के उत्थान की प्रबल भावना, भविष्य के प्रतिबिम्ब तथा उसको सफल बनाने हेतु करणीय कार्यों की सूची प्रस्तुत की है । जैसे इक्कीसवीं सदी का जीवन (बैसाखियां पृ० १५) इक्कीसवीं सदी के निर्माण में युवकों की भूमिका ( सफर १६१) आदि
१. आह्वान पृ० सं० २२
२. एक बूंद : एक सागर पृ० १७३०
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