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गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन
- “मैं नहीं मानता कि धर्म का सम्पूर्ण अधिकारी मैं ही हूं, दूसरे सब अधार्मिक हैं । मैं अपने साथ उन सब व्यक्तियों को धार्मिक मानता हूं, जिनका विश्वास सत्य में हैं, अहिंसा में है, मैत्री में है ।''
जन-जीवन में समन्वय एवं सौहार्द की प्रेरणा भरने हेतु वे अपने साहित्य में अनेक बार इस बात को दोहराते रहते हैं--"एक धार्मिक संप्रदाय, इतर धार्मिक सम्प्रदाय के साथ अमानवीय व्यवहार करता है । एक दूसरे पर आक्षेप व छींटाकशी करता है, एक के विचारों को विकृत बनाकर लोगों को भड़कने व बहकाने के लिए प्रचार करता है तो यह अपने आपके साथ धोखा है। अपनी कमजोरी का प्रदर्शन है । अपने दुष्कृत्यों का रहस्योद्घाटन है और अपनी संकीर्ण भावना व तुच्छ मनोवृत्ति का परिचायक है ।
उनके असाम्प्रदायिक एवं उदार दृष्टि के उदाहरण में निम्न प्रवचनांश को उद्धृत किया जा सकता है- "मुझसे कई बार लोग पूछते हैं--सबसे अच्छा कौन-सा धर्म है ? मैं कहा करता हूं-"सबसे अच्छा धर्म वही है, जो धर्मानुयायियों के जीवन में अहिंसा और सत्य की व्याप्ति लाए। जिसका पालन करने वालों का जीवन त्याग, संयम और सदाचरण की ओर झुका हो। वे स्पष्ट उद्घोषणा करते हैं-"मेरा सम्प्रदाय ही श्रेष्ठ है यह सोचना धार्मिक उन्माद का प्रतिफल है और चिंतन शक्ति का दारिद्र्य है।
आचार्य तुलसी धर्म को इतना व्यापक देखना चाहते हैं कि वहां तव और मम का भेद ही न रहे। वे अपनी मनोभावना प्रकट करते हैं कि मैं उस समय का इंतजार कर रहा हूं, जब बिना किसी जातिभेद के मानवमानव धर्मपथ पर प्रवृत्त होगा।
आचार्य तुलसी धार्मिक सद्भाव एवं समन्वय के परिपोषक हैं पर उनकी दृष्टि में धर्म-समन्वय का अर्थ अपने सिद्धांतों को ताक पर रखकर अपने आपका विलय करना कतई नहीं है। पांचों अंगुलियों को एक बनाने जैसी काल्पनिक. एकता को वे बहुमूल्य नहीं मानते । वे मानते हैं कि व्यक्तिगत रुचि, आस्था, मान्यता आदि सदा भिन्न रहेंगी, पर उनमें आपसी टकराव न हो, परस्पर सहयोग, सद्भाव एवं सापेक्षता बनी रहे, यह आवश्यक है ।'
१. जैन भारती, ९ नवम्बर १९६९ । २. जैन भारती, २० जून १९५४ । ३. जैन भारती, ८ अप्रैल १९५६ ।। ४. एक बूंद : एक सागर, पृ. ७६४ । ५. १-१२-६४ के प्रवचन से उद्धृत । ६. राजपथ की खोज, पृ. १८२।।
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