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आ• तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण समन्वय की व्याख्या उनके शब्दों में इस प्रकार है---"मेरे अभिमत से सद्भाव और समन्वय का अर्थ है-मतभेद रहते हुए भी मनभेद न रहे, अनेकता में एकता रहे।' अपने विचारों को सशक्त भाषा में रखें पर दूसरों के विचारों को काटकर या तिरस्कृत करके नहीं। स्वयं द्वारा स्वीकृत सही सिद्धांतों के प्रति दृढ़ विश्वास रहे पर दूसरों के विचारों के प्रति सहिष्णुता हो।' आचार्य तुलसी के विचार से सर्वधर्मसद्भाव का विचार अनाग्रह की पृष्ठभूमि पर ही फलित हो सकता है।
__ सर्वधर्म एकता के लिए उन्होंने रायपुर चातुर्मास (सन् १९७०) में त्रिसूत्री कार्यक्रम की रूपरेखा भी प्रस्तुत की-3
१. सभी धर्म-सम्प्रदायों के आचार्य या नेता समय-समय पर परस्पर मिलते रहें। ऐसा होने से अनुयायी वर्ग एक दूसरे के निकट आ सकता है और भिन्न-भिन्न संप्रदायों के बीच मैत्री भाव स्थापित
हो सकता है। २. समस्त धर्मग्रन्थों का तुलनात्मक अध्ययन हो। ऐसा होने से धर्म
सम्प्रदायों में वैचारिक निकटता बढ़ सकती है। ३. समस्त धर्मों से कुछ ऐसे सिद्धांत तैयार किए जाएं जो सर्वसम्मत
हों। उनमें संप्रदायवाद की गंध न रहे, ताकि उनका पालन करने
में किसी भी संप्रदाय के व्यक्ति को कठिनाई न हो। असाम्प्रदायिक धर्म : अणुव्रत
एक धर्मसंघ एवं सम्प्रदाय से प्रतिबद्ध होने पर भी आचार्य तुलसी का दृष्टिकोण असाम्प्रदायिक रहा है । इस बात की पुष्टि के लिए निम्न उद्धरण पर्याप्त होंगे
० जैन धर्म मेरी रग-रग में, नस-नस में रमा हुआ है, किन्तु
साम्प्रदायिक दृष्टि से नहीं, व्यापक दृष्टि से । क्योंकि मैं सम्प्रदाय
में रहता हूं पर सम्प्रदाय मेरे दिमाग में नहीं रहता। ० तेरापंथ किसी व्यक्ति विशेष या वर्गविशेष की थाती नहीं है बल्कि जो प्रभु के अनुयायी हैं, वे सब तेरापंथ के अनुयायी हैं और
जो तेरापंथ के अनुयायी हैं, वे सब प्रभु के अनुयायी हैं। ० मैं सोचता हूं मानव जाति को कुछ नया देना है तो सांप्रदायिक दृष्टि से नहीं दिया जा सकता, संकीर्ण दृष्टि से नहीं दिया जा सकता, व्यापक १. जैन भारती, २१ अप्रैल १९६८ । २. अमृत महोत्सव स्मारिका पृ० १३ । ३. समाधान की ओर, पृ. ४२ । ४. जैन भारती, २६ जून १९५५ ।
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