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________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन १२९ दृष्टि से ही दिया जा सकता है । यही कारण है कि मैंने सम्प्रदाय की सीमा को अलग रखा और धर्म की सीमा को अलग । " इसी व्यापक दृष्टिकोण को ध्यान में रखकर आचार्य तुलसी ने असाम्प्रदायिक धर्म का आंदोलन चलाया, जो जाति, वर्ण, वर्ग, भाषा, प्रांत एवं धर्मगत संकीर्णताओं से ऊपर उठकर मानव जाति को जीवन-मूल्यों के प्रति आकृष्ट कर सके । इस असाम्प्रदायिक मानव-धर्म का नाम है'अणुव्रत आंदोलन ।' अणुव्रत को असाम्प्रदायिक धर्म के रूप में प्रतिष्ठित करने वाला उनका निम्न उद्धरण इसकी महत्ता के लिए पर्याप्त है ――― " इतिहास में ऐसे धर्मों की चर्चा है, जिनके कारण मानव जाति विभक्त हुई है । जिन्हें निमित्त बनाकर लड़ाइयां लड़ी गई हैं किन्तु विभक्त मानव जाति को जोड़ने वाले अथवा संघर्ष को शान्ति की दिशा देने वाले किसी धर्म की चर्चा नहीं है । क्यों ? क्या कोई ऐसा धर्म नहीं हो सकता, जो संसार के सब मनुष्यों को एकसूत्र में बांध सके । अणुव्रत को मैं एक धर्म के रूप में देखता हूं पर किसी संप्रदाय के साथ इसका गठबन्धन नहीं है । इस दृष्टि से मुझे यह स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं है कि अणुव्रत धर्म है, पर यह किसी वर्ग विशेष का धर्म नहीं है । "" अणुव्रत जीवन को अखंड बनाने की बात कहता है । अणुव्रत के अनुसार ऐसा नहीं हो सकता कि व्यक्ति मंदिर में जाकर भक्त बन जाए और दुकान पर बैठकर क्रूर अन्यायी । अणुव्रत कहता है - "तुम मंदिर, मस्जिद, चर्च कहीं भी जाओ या न जाओ, अगर रिश्वत नहीं लेते हो, बेईमानी नहीं करते हो, आवेश के अधीन नहीं होते हो, दहेज की मांग नहीं करते हो, व्यसनों को निमंत्रण नहीं देते हो, अस्पृश्यता से दूर हो तो सही माने में धार्मिक हो । "" धार्मिकता के साथ नैतिकता की नयी सोच देकर अणुव्रत ने एक नया दर्शन प्रस्तुत किया है । पहले धार्मिकता के साथ देवल परलोक का भय जुड़ा था । उसे तोड़कर अणुव्रत ने इहलोक सुधारने की बात कही तथा धर्माराधना के लिए कोई खास देश या काल की प्रतिबद्धता निर्धारित नहीं की । भारत के गिरते नैतिक एवं चारित्रिक मूल्यों को देखकर अणुव्रत ने एक आवाज उठाई - " जिस देश के लोग धार्मिकता का दंभ नहीं भरते, वहाँ अनैतिक स्थिति होती है तो क्षम्य हो सकती है क्योंकि उनके पास कोई १. बैसाखियां विश्वास की, पृ० ५ । २. एक बूंद : एक सागर, पृ० ४९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003117
Book TitleAcharya Tulsi Sahitya Ek Paryavekshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages708
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size23 MB
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