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आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण ब्लैक में कमाया, उसने दो हजार रुपयों से एक धर्मशाला बनवा दी, एक मंदिर बनवा दिया, अब वह सोचता है कि मानो स्वर्ग की सीढी ही लगा दी, यह दृष्टिकोण का मिथ्यात्व है । धर्म, धन से नहीं, त्याग और संयम से होता है ।" इसी संदर्भ में उनकी निम्न टिप्पणी भी मननीय है- “एक तरफ लाखों करोड़ों का ब्लैक तथा दूसरी तरफ लोगों को जूठी पत्तल खिलाकर पुण्य और स्वर्ग की कामना करना सचमुच बड़ी हास्यास्पद बात है।"
धर्मस्थानों में पूंजी की प्रतिष्ठा देखकर उनका हृदय क्रंदन कर उठता है । इस बेमेल मेल को उनका बौद्धिक मानस स्वीकार नहीं करता। धर्मस्थलों में पूंजीकरण के विरुद्ध उनकी निम्न पंक्तियां कितनी सटीक हैं"तीर्थस्थान, जो भजन और उपासना के केन्द्र थे, वे आज आपसी निंदा और अर्थ की चर्चा के केन्द्र हो रहे हैं। मंदिर, मठ, उपाश्रय और धर्मस्थानों में ऊपरी रूप ज्यादा रहता है। जिसके फर्श पर अच्छा पत्थर जड़ा होता है, मोहरें और हीरे चमकते रहते हैं, वह मंदिर अच्छा कहलाता है। मूर्ति, जो ज्यादा सोने से लदी होती है, बढिया कहलाती है। वह ग्रन्थ, जो सोने के अक्षरों में लिखा जाता है, अधिक महत्वशील माना जाता है। ऐसा लगता है, मानो धर्म सोने के नीचे दब गया है।"
धर्म के क्षेत्र में चलने वाली धांधली एवं रिश्वतखोरी पर करारा व्यंग्य करते हुए उनका कहना है-“यदि दर्शनार्थी मंदिर जाकर दर्शन करना चाहे तो पुजारी फौरन टका सा जवाब दे देगा कि अभी दर्शन नहीं हो सकेंगे, ठाकुरजी पोढे हुए हैं। लेकिन यदि उससे धीरे से कहा जाए कि भइया ! दर्शन करके, इतने रुपये कलश में चढाने हैं तो फौरन कहेगा--- अच्छा ! मैं टोकरी बजाता हूं, देखें, ठाकुरजी जागते हैं या नहीं ?""
इसी संदर्भ में उनकी निम्न टिप्पणी भी विचारोत्तेजक है-"लोग भगवान् को प्रसन्न रखने के लिए उन्हें कीमती आभूषणों से सजाते हैं । उनकी सुरक्षा के लिए पहरेदारों को रखा जाता है । मैं नहीं समझता कि जो भगवान् स्वयं अपनी रक्षा नहीं कर सकता, वह दूसरों की सुरक्षा कैसे कर सकेगा ?
___ महावीर ने अपार वैभव का त्याग करके दिगम्बर एवं अपरिग्रही जीवन जीया पर उनके अनुयायियों ने उन्हें आभूषणों से लाद दिया । दुनिया को अपरिग्रह का सिद्धांत देने वाले महावीर को परिग्रही देखकर वे मृदु
१. प्रवचन पाथेय भाग ९ पृ. १६५। २. जैन भारती, २९ मार्च १९६४ । ३. विवरण पत्रिका, २७ नव० १९५२ । ४. जैन भारती, २० मई १९७१ ।
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