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________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन १३१ । १. मानवीय एकता का विकास २. सह अस्तित्व की भावना का विकास ३. व्यवहार में प्रामाणिकता का विकास ४. आत्मनिरीक्षण की प्रवृत्ति का विकास ५. समाज में सही मानदण्डों का विकास । उच्च आदर्शों को लेकर चलने वाला यह आंदोलन जनसम्मत एवं लोकप्रिय होने पर भी आचरणगत एवं जीवनगत नहीं हो सका, इस कमी को वे स्वयं भी स्वीकार करते हैं ---"यह बात मैं निःसंकोच रूप से स्वीकार कर सकता हूं कि अणुव्रत सैद्धान्तिक स्तर पर जितना लोकप्रिय हुआ, आचरण की दिशा में यह इतना आगे नहीं बढ़ सका। इसका कारण है कि किसी भी सिद्धान्त को सहमति देना बुद्धि का काम है और उसे प्रयोग में लाना जीवन के बदलाव से सम्बन्धित है।' फिर भी आचार्य तुलसी अणुव्रत के स्वर्णिम भविष्य के प्रति आश्वस्त हैं। इसके उज्ज्वल भविष्य की रूपरेखा उनके शब्दों में यों उतरती है----- "इक्कीसवीं सदी के भारत का निर्माता मानव होगा और वह अणुव्रती होगा । अणुव्रती गृह संन्यासी नहीं होगा। वह भारत का आम आदमी होगा और एक नए जीवन-दर्शन को लेकर इक्कीसवीं सदी में प्रवेश करेगा।" धार्मिक विकृतियां आचार्य तुलसी के अनुसार धर्मक्षेत्र में विकृति आने का सबसे बड़ा कारण धर्म का पूंजी के साथ गठबंधन होना है। वे मानते हैं-"जब-जब धर्म का गठबंधन पूंजी के साथ हुआ, तब-तब धर्म अपने विशुद्ध स्थान से खिसका है। खिसकते-खिसकते वह ऐसी डांवाडोल स्थिति में पहुंच गया है, जहां धर्म को अफीम कहा जाता है।" धन और धर्म को जब तक अलगअलग नहीं किया जाएगा तब तक धर्म का विशुद्ध स्वरूप जनता तक नहीं पहुंच सकता। धर्म का धन से सम्बन्ध नहीं है इसको तर्क की कसौटी पर कसकर चेतावनी देते हुए वे कहते हैं -- "मैं अनेक बार लोगों को चेतावनी देता हूं कि यदि धर्म पैसे से खरीदा जाता तो व्यापारी लोग उसे खरीद कर गोदाम भर लेते । यह खेत में उगता तो किसान भारी संग्रह कर लेते ।४ जो लोग धर्म के साथ धन की बात जोड़कर अपने को धार्मिक मानते हैं, उन पर तीखा व्यंग्य करते हुए वे कहते हैं--- "एक मनुष्य ने लाखों रुपया १. अनैतिकता की धूप : अणुव्रत की छतरी, पृ. १६५ । २. एक बूंद : एक सागर, पृ. ४८ । ३. जैन भारती, २६ जून १९५५। ४. हस्ताक्षर, पृ. ३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003117
Book TitleAcharya Tulsi Sahitya Ek Paryavekshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages708
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size23 MB
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