SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 237
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन १९३ करेंगे। इनमें कुछ पार्टस गलत लग गए अथवा इनके उपयोग में कहीं प्रमाद रह गया तो ये मनुष्यों को मारने पर उतारू हो जाएंगे। यह क्रम शुरू भी हो चुका है । समाचार पत्रों में तो यह आशंका व्यक्त की गई है कि ये अलग देश की माँग करेंगे या इन्सान पर राज करेंगे । ऐसा कुछ न भी हो, फिर भी यह तो सम्भव लगता है कि ये उत्पात मचाए बिना नहीं रहेंगे । „„ इस उद्धरण का तात्पर्य उनकी भाषा में इन शब्दों में रखा जा सकता है - " भौतिक विकास एवं यन्त्रों का विकास कभी दुःखद नहीं होगा यदि वह संयम शक्ति के विकास से सन्तुलित हो । "* स्वस्थ समाज-निर्माण आचार्य तुलसी के महान् एवं ऊर्जस्वल व्यक्तित्व को समाज सुधारक के सीमित दायरे में बांधना उनके व्यक्तित्व को सीमित करने का प्रयत्न है । उन्हें नए समाज का निर्माता कहा जा सकता है । आचार्य तुलसी जैसे व्यक्ति दो-चार नहीं, अद्वितीय होते हैं। उनका गहन चिन्तन समाज के आधार पर नहीं, वरन् उनके चिन्तन में समाज अपने को खोजता है । उन्होंने साहित्य के माध्यम से स्वस्थ मूल्यों को स्थापित करके समाज को सजीव एवं शक्तिसम्पन्न बनाने का प्रयत्न किया है । समाज निर्माण की कितनी नयी-नयी कल्पनाएं उनके मस्तिष्क में तरंगित होती रहती हैं, इसकी पुष्टि निम्न उद्धरण से हो जाती है - - " मेरा यह निश्चित विश्वास है कि यदि हम समाज को अपनी कल्पना के अनुरूप ढाल पाते तो आज उसका स्वरूप इतना भव्य और सुघड़ होता कि मैं बता नहीं सकता 13 आचार्य तुलसी केवल व्यक्तियों के समूह को समाज मानने को तैयार नहीं हैं । उनकी दृष्टि में समाज के सदस्यों में निम्न विशेषताओं का होना आवश्यक है – “जिस समाज के सदस्यों में इस्पात सी दृढ़ता, संगठन में निष्ठा, चारित्रिक उज्ज्वलता, कठिन काम करने का साहस और उद्देश्य पूर्ति के लिए स्वयं को झोंकने का मनोभाव होता है, वह सनाज अपने निर्धारित लक्ष्य तक बहुत कम समय में पहुंच जाता है । ११४ आचार्य तुलसी समाज निर्माण की आधारशिला के रूप में मर्यादा और अनुशासन को अनिवार्य मानते हैं । उनका निम्न वक्तव्य इसका स्वयंभू साक्ष्य है -- " समाज हो और मर्यादा न हो, वह समाज अधिक समय तक जीवित नहीं रह सकता । समाज हो और मर्यादा न हो तो विकास के नए १. बैसाखियां विश्वास की पृ० १५, १९ । २. मेरा धर्म : केन्द्र और परिधि, पृ० ३२ । ३. आह्वान, पृ० २१ । ४. एक बूंद : एक सागर, पृ० १३८६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003117
Book TitleAcharya Tulsi Sahitya Ek Paryavekshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages708
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy