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आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण रास्ते नहीं खुलते । समाज हो और मर्यादा न हो तो न्याय और समविभाग नहीं मिल सकता । समाज को स्वस्थ और गतिशील बनाए रखने के लिए मर्यादा की अहंभूमिका रहती है ।"
स्वस्थ समाज-संरचना के लिए वे सुविधावाद और विलासिता को बहुत बड़ा खतरा मानते हैं। वे स्पष्ट शब्दों में कहते हैं-"विलास का अन्त विनाश में होता है- पानी में से घी निकल सके तो विलासिता में लिप्त रहकर दुनिया सुख पा सकती है। कभी-कभी तो वे इतने भावपूर्ण शब्दों में यह तथ्य जनता के गले उतारते हैं कि देखते ही बनता है - "मैं आपको यह कैसे समझाऊं कि विलास में सुख नहीं है । यह कोई पदार्थ होता तो आपके सामने रख देता पर यह तो अनुभव है । अनुभव बिना स्वयं के आचरण के प्राप्त नहीं हो सकता।" . आज मानव श्रम को भूलकर यंत्राश्रित हो रहा है, इसे वे उज्ज्वल समाज के भविष्य का प्रतीक नहीं मानते । उनका मानना है कि जीवन की धरती पर सत्य, शिव और सौन्दर्य की धाराएं प्रवाहित करने के लिए यंत्रों पर निर्भर रहने से काम नहीं बनेगा।"२
__गांधीजी ने आदर्श समाज के लिए रामराज्य की कल्पना प्रस्तुत की। आचार्य तुलसी ने आदर्श, निर्द्वन्द्व, स्वस्थ एवं शोषणमुक्त समाज-संरचना के लिए अणुव्रत समाज की संकल्पना की । वे कहते हैं --- "मेरे मस्तिष्क में जिस आदर्श समाज की कल्पना है, वह समूचे विश्व के लिए नए सृजन की दिशा में वर्तमान युग और युवापीढ़ी के लिए उदाहरण बन सकती है पर उस आदर्श तक पहुंचने के लिए केवल कल्पना के ताने-बाने बुनने से काम नहीं होगा । उसके लिए तो दृढ़ संकल्प और निष्ठा से आगे बढ़ने की जरूरत है।"पदयात्रा के दौरान एक प्रवचन में वे अपने संकल्प को अभिव्यक्त करते हुए कहते हैं.--"स्वस्थ समाज की संरचना के लिए कार्य करना मेरी जीवनचर्या का अंग है। इसलिए जब-तक वैयक्तिक साधना के साथ-साथ ये सारी बातें नहीं होतीं, तब तक मेरी यात्रा सम्पन्न कैसे हो सकती है ?
स्वस्थ समाज की कल्पना आचार्य तुलसी के शब्दों में यों उतरती है-"मेरी दृष्टि में वह समाज स्वस्थ है, जिसमें व्यसन न हो, कुरूढ़ियां न हो, जिसकी जीवन-शैली सात्त्विक, सादगीपूर्ण और श्रम पर आधारित हो। दूसरे शब्दों में ज्ञान-दर्शन व चारित्र की त्रिवेणी से आप्लावित समाज, स्वस्थ समाज है। ज्ञान, दर्शन और चारित्र का प्रतिनिधि शब्द है-धर्म या
१. एक बूंद : एक सागर, पृ० १४९६ । २. बैसाखियां विश्वास की, पृ० १८ । ३. जैन भारती २८ अक्टूबर, १९६२ ।
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