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________________ गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन वह पूजन करता हे तब लगता है मानो उसमें देवत्व का निवास है, किन्तु बाजार में वह यमराज बन जाता है । पाठ पूजा करते समय वह प्रह्लाद को भी मात करता है, पर जब उसे अधिकार की कुर्सी पर देखो तो शायद हिरणांकुश वही है। ..."उस मानव को दुरंगा नहीं कहूं तो क्या कहूं।'' विद्यार्थियों को सम्बोधित करते हुए उनकी वाणी कितनी हृदयस्पर्शी एवं सामयिक बन पड़ी है-"विद्यार्थियों ! मैं स्वयं विद्यार्थी हूं और जीवन भर विद्यार्थी बने रहना चाहता हूं।".... विद्यार्थी रहने वाला जीवन भर नया आलोक पाता.है, विद्वान् बन जाने के बाद प्राप्ति का मार्ग रुक जाता है । प्रवचन साहित्य : एक समीक्षा उनके विशाल प्रवचन साहित्य में विषय की गम्भीरता, अनुभवों की ठोसता एवं व्यावहारिक ज्ञान की झांकी स्पष्ट देखी जा सकती है। फिर भी इस साहित्य की समालोचना निम्न बिन्दुओं में की जा सकती है जनभोग्य होने के कारण इसमें नया शिल्पन एवं साहित्यिक भाषा के प्रयोग कम हुए हैं पर जीवन की सचाइयों से यह साहित्य पूरी तरह संपृक्त है। उनके इस साहित्य का सबसे बड़ा वैशिष्ट्य यह है कि यह निराशा में आशा की ज्योति प्रज्वलित करता है तथा जन-जन में नैतिकता की अलख जगाता है । वे मानते हैं कि यदि मैं अपने प्रवचन में नैतिकता की बात नहीं कहूंगा तो मेरे प्रवचन की सार्थकता ही क्या है ? . एक ही प्रवचन में पाठक को विषयान्तर की प्रवृत्ति मिल सकती है। अनेक स्थलों पर भावों की पुनरावृत्ति भी हुई है पर जिन मूल्यों की वे चर्चा कर रहे हैं, उन्हें जन-जन में आत्मसात करवाने के लिए ऐसा होना बहुत आवश्यक है । उनकी विशाल प्रवचन सभा में भिन्न-भिन्न रुचि एवं भिन्न वर्गों के लोग उपस्थित रहते हैं। अतः उन सबको मानसिक खुराक मिल सके यह ध्यान रखना प्रवचनकर्ता के लिए आवश्यक हो जाता है । इसीलिए अनेक स्थलों पर अवान्तर विषयों का समावेश मूल विचार में आघात करने के स्थान पर उसके अनेक पहलुओं को ही स्पष्ट करता है। साहित्य का सत्य देश, काल और परिस्थिति के अनुसार बदलता है अतः इस साहित्य में भी कहीं-कहीं परस्पर विरोधी बातें मिलती हैं पर यह विरोधाभास उनके जीवन के विभिन्न अनुभवों का जीवन्त रूप है तथा आग्रह मुक्त मानस का परिचायक है। सहजता, सरलता, प्रभावोत्पादकता, भावप्रवणता एवं व्यावहारिकता से संशिलष्ट उनका प्रवचन साहित्य युगों-युगों तक विश्व चेतना पर अपनी अमिट छाप छोड़ता रहेगा। १. जैन भारती, १८ मार्च १९६१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003117
Book TitleAcharya Tulsi Sahitya Ek Paryavekshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages708
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size23 MB
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