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आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण
अहिंसा का सामाजिक स्वरूप
अहिंसा कोई नारा नहीं, अपितु जीवन का शाश्वत दर्शन है । समय की आंधी इसे कुछ धूमिल कर सकती है पर समाप्त नहीं कर सकती ।" अहिंसा केवल मोक्ष प्राप्ति के लिए ही नहीं, अपितु सामाजिक जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में इसकी उपयोगिता निर्विवाद है । आचार्य तुलसी के अनुसार अहिंसा वह सुरक्षा कवच है, जो घृणा, वैमनस्य, प्रतिशोध, भय, आसक्ति आदि घातक अस्त्रों के प्रहार को निरस्त कर देता है तथा समाज में शांति, सह-अस्तित्व एवं मैत्रीपूर्ण वातावरण बनाए रख सकता है । वे मानते हैं। अहिंसा का पथ जटिल एवं कंकरीला हो सकता है पर महान् बनने हेतु इसके अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है । अहिंसा ही वह शक्ति है, जो समाज में मानव को पशु बनने से रोके हुए है ।"
आचार्य तुलसी ने अहिंसा को समाज के साथ जोड़कर उसे जनआन्दोलन या क्रांति का रूप देने का प्रयत्न किया है। अहिंसा के सन्दर्भ में नैतिकता को व्याख्यायित करते हुए वे कहते हैं - " अहिंसा का सामाजिक जीवन में प्रयोग ही नैतिकता है। जिसमें दूसरों के प्रति मैत्री का भाव नहीं होता, करुणा की वृत्ति नहीं होती और दूसरों के कष्ट को अनुभव करने का मानस नहीं होता, वह नैतिक कैसे बन सकता है ? "
अहिंसा को सामाजिक सन्दर्भ में व्याख्यायित करते हुए वे कहते हैं दूसरों की सम्पत्ति, ऐश्वर्य और सत्ता देखकर मुंह में पानी नहीं भर आता, यह अहिंसा का ही प्रभाव है । "अहिंसा के द्वारा जीवन की आवश्यकताएं पूरी नहीं होतीं, इसलिए वह असफल है— चिन्तन की यह रेखा भूल भरे बिन्दुओं से बनी है और बनती जा रही है ।" समाज के सन्दर्भ में अहिंसा की उपयोगिता स्पष्ट करते हुए उनका मन्तव्य है - व्यक्ति निरंकुश न हो, उसकी महत्त्वाकांक्षाएं दूसरों को हीन न समझें, उसकी प्रतिस्पर्धाएं समाज में संघर्ष न करें - इन सब दृष्टियों से अहिंसा का सामाजिक विकास होना आवश्यक है ।
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अहिंसा और समाज के सन्दर्भ में प्रतिप्रश्न उठाकर वे सामाजिक प्राणी के लिये अहिंसा की सीमारेखा या इयत्ता को स्पष्ट करते हुए कहते हैं - " सामाजिक प्राणी के लिये यह कैसे सम्भव हो सकता है कि वह खेती, व्यवसाय या अर्जन न करे और यह भी कैसे सम्भव है कि वह अपने अधिकृत
१. कुहासे में उगता सूरज, पृ० १४ ।
२. प्रवचन डायरी, पृ० २३ ।
३. गृहस्थ को भी अधिकार है धर्म करने का, पृ० ९ ।
४. गृहस्थ को भी अधिकार है धर्म करने का, पृ० ११ ।
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