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गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन
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आचार्य तुलसी के उपरोक्त चिन्तन ने उनके व्यक्तित्व में एक ऐसा आकर्षण पैदा किया है कि अनेक राष्ट्र नायक समय-समय पर उनके चरणों में उपस्थित होते रहते हैं पर आचार्यश्री अपना अनुभव इन शब्दों में व्यक्त करते हैं — धर्माचार्य और राजनयिक के मिलन का अर्थ यह कभी नहीं है कि धर्म और राजनीति एक हो गए । राजनीति ने बहुत बार हमारे दरवाजे पर आकर दस्तक दी है, पर हमने उसे विनम्रतापूर्वक लौटा दिया । "
धर्म और राजनीति को विरोधी मानते हुए भी आचार्य तुलसी आज की भ्रष्ट, स्वार्थी, पदलोलुप और मायायुक्त राजनीति की छवि को स्वच्छ बनाने के लिए राजनीति में धर्मनीति का समावेश आवश्यक मानते हैं । उनका चिन्तन है कि निस्पृह होने के कारण धर्मनेता में ही वह शक्ति होती है कि वे राजनीति पर अंकुश रख सकें, उसे उच्छृंखल होने से बचा सकें । वे अनेक बार अपनी प्रवचन सभाओं में स्पष्ट कहते हैं - "यदि धर्म नहीं रहा तो राजनीति अनीति बन जाएगी। उसकी सफलता क्षणस्थायी होगी या फिर वह असफल, भ्रष्ट और दलबदलू हो जाएगी। पर, आचार्य तुलसी धर्म का राजनीति में हस्तक्षेप नैतिक नियन्त्रण और मार्गदर्शन तक ही उचित मानते हैं, उससे आगे नहीं । प्रसिद्ध साहित्यकार सरदारपूर्ण सिंह 'सच्ची वीरता' में यहां तक लिख देते हैं कि हमारे असली और सच्चे राजा ये साधु पुरुष ही हैं।
धर्म और राजनीति में समन्वय करता हुआ उनका निम्न उद्धरण आज की दिशाहीन राजनीति को नया प्रकाश देने वाला है - "धर्म के चार आधार हैं क्षांति, मुक्ति, आर्जव और मार्दव । मुझे लगता है लोकतन्त्र के भी चार आधार हैं । लोकतन्त्र के सन्दर्भ में क्षांति का अर्थ होगा- सहिष्णुता । मुक्ति का अर्थ होगा निर्लोभता या पद के प्रति अनासक्ति । ऋजुता का अभिप्राय होगा - मन, वचन और शरीर की सरलता, कुटिलता का अभाव तथा मार्दव का अर्थ होगा - व्यवहार की मृदुता, विरोधी दल पर छींटाकशी का अभाव । ""
धर्म और राजनीति इन दो विरोधी तत्त्वों में सामंजस्य करते हुए उनका चिन्तन कितना सटीक है- " यद्यपि इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि धर्म की विकृतियों को मिटाने के लिए राजनीति और राजनीति की विकृतियों को मिटाने के लिए धर्म का अपना उपयोग है । पर जब इन्हें एकमेक कर दिया जाता है तो अनेक प्रकार की समस्याएं खड़ी होती हैं । अभी कुछ राष्ट्रों में इन्हें एकमेक किया जा रहा है पर इस से समस्याएं भी बढ़ी हैं ।'
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१. १- १२-६९ के प्रवचन से उद्धृत |
२. जैन भारती, १६ अगस्त १९७० ।
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