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गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन
लक्ष्य को बदल सके और कार्यपद्धति को बदल सके । ”
आचार्यश्री का चिंतन है कि भारतीय संस्कृति सबसे प्राचीन ही नहीं, समृद्ध और जीवन्त भी है । अतः किसी भी राष्ट्रीय समस्या का हल हमें अपने सांस्कृतिक तत्त्वों के द्वारा ही करना चाहिए अन्यथा मानसिक दासता हमें अपनी संस्कृति के प्रति उतनी गौरवशील नहीं रहने देंगी । इसी प्रसंग में उनके एक प्रवचनांश को उद्धृत करना अप्रासंगिक नहीं होगा - " लोग कहते हैं भारत में कम्युनिज्म - साम्यवाद आने से शोषण मिट सकता है । मैं उनसे कहूंगा - वे अपनी भारतीय संस्कृति को न भूलें। उसकी पवित्रता में अब भी इतनी ताकत है कि वह शोषण को जड़ मूल से मिटा सकती है, अन्याय का मुकाबला कर सकती है । उसके लिये विदेशवाद की जरूरत नहीं है !
इसी प्रकार निम्न घटना प्रसंग में भी उनकी राष्ट्र के प्रति अपूर्व प्रेम की झलक मिलती है— व्यास गांव में जोरावरसिंह नामक सरदार आचार्यश्री के पास आकर बोला- भारत बदमाशों एवं स्वार्थी लोगों का देश है, अतः मैं इस देश को छोड़कर विदेश जाने की बात सोचता हूं । इसके लिए आप मुझे क्या परामर्श देंगे ?
आचार्य तुलसी गम्भीर स्वरों में बोले – “तुमको देश बुरा लगा और विदेश अच्छा, वहां क्या कुछ नहीं हो रहा है ? मारकाट क्या वहां नहीं है ? ईरान में क्या हो रहा है ? वहां के कत्लेआम की बात सुनकर तुम पर कोई असर नहीं हुआ ? कम्बोडिया से ४ लाख लोग भाग गए, २० लाख निकम्मे हैं। मैं समझता हूं कि देश खराब नहीं होता, खराब होता है आदमी । ""
पवित्र हिन्दू संस्कृति में गलत तत्त्वों के मिश्रण से वे अत्यन्त चिन्तित हैं । ४३ वर्ष पूर्व प्रदत्त उनका निम्न वक्तव्य कितना हृदयस्पर्शी एवं वेधक है - " भारतीय जीवन से जो संतोष, सहिष्णुता, शौर्य और आत्मविजय की सहज धारा बह रही है वह दूसरों को लाखों यत्न करने पर भी सुलभ नहीं है । यदि इन गुणों के स्थान पर भौतिक संघर्ष, सत्तालोलुपता या पद की आकांक्षा बढ़ती है तो मैं इसे भारत का दुर्भाग्य कहूंगा।"
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भारतीय संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में उनका बार्तमानिक अनुभव कितना प्रेरणादायी एवं मार्मिक बन पड़ा है- यह भारत भूमि, जहां राम-भरत की
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१. बहता पानी निरमला, पृ० २४७ । २. प्रवचन पाथेय भाग ९, पृ० ३. संस्मरणों का वातायन, पृ० १-२ ।
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