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गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन
यह क्रांतवाणी उनके क्रांत व्यक्तित्व की द्योतक ही नहीं, वरन् धार्मिक, सामाजिक विकृतियों एवं अंधरूढ़ियों पर तीव्र कटाक्ष एवं परिवर्तन की प्रेरणा भी है। इस संदर्भ में नरेन्द्र कोहली की निम्न पंक्तियां उद्धरणीय एवं मननीय हैं- "मदिरा की भांति केवल मनोरंजन करने वाला साहित्य मानसिक समस्याओं को भुलाने में सहायता देकर मानसिक राहत दे सकता है पर इसमें उनके निराकरण के प्रयत्न की उपेक्षा होने से समस्या समाप्त नहीं होती, वरन् भुला दी जाती है। ......."किसी की पीड़ा का उपचार इंजेक्शन देकर सुला देना नहीं है अतः किसी राष्ट्र में समस्याओं की चुनौती स्वीकार करने के लिए जो क्षमता होती है-इस प्रकार के साहित्य से वह क्षीण होकर क्रमश: नष्ट हो जाती है । सक्रियता का लोप राष्ट्र में असहायता का भाव उत्पन्न करता है, जो अंततः राष्ट्र के पतन का कारण होता है । जो साहित्य किसी राष्ट्र को महान् नहीं बनाता, वह महान् साहित्य कैसे माना जा सकता है ?'
इस प्रकार जीवंत सत्य, स्वतन्त्रता, यथार्थ एवं क्रांति इन चारों कसौटियों पर आचार्य तुलसी का साहित्य स्वर्ण की भांति खरा उतरता है। साहित्य का उद्देश्य
जीवन में सत्यं, शिवं और सुन्दरं की स्थापना के लिए साहित्य की आवश्यकता रहती है। यद्यपि यह सत्य है कि साहित्य का उद्देश्य या संप्रेषण भिन्न-भिन्न लेखकों का भिन्न-भिन्न होता है किंतु जब-जब साहित्य अपने मूल उद्देश्य से हटकर केवल व्यावसायिक या मनोरंजन का साधन बन जाता है, तब-तब उसका सौन्दर्यपूरित शरीर क्षत-विक्षत हो जाता है। साहित्य मानसिक खाद्य होता है अतः वह सोद्देश्य होना चाहिए। महावीर प्रसाद द्विवेदी साहित्य के उद्देश्य को इन शब्दों में अंकित करते हैं –'साहित्य ऐसा होना चाहिए, जिसके आकलन से दूरदर्शिता बढ़े, बुद्धि को तीव्रता प्राप्त हो, हृदय में एक प्रकाश की, संजीवनी शक्ति की धारा बहने लगे, मनोवेग परिष्कृत हो जाएं और आत्म गौरव की उद्भावना तीव्र होकर पराकाष्ठा तक पहुंच जाए।'
कथा मनीषी जैनेन्द्र आत्माभिव्यक्ति को साहित्य का प्रयोजन मानते हैं। उनके अनुसार विश्वहित के साथ एकाकार हो जाना अर्थात् बाह्य जीवन से अंतर जीवन का सामंजस्य स्थापित करना ही साहित्य का परम लक्ष्य है। आचार्य शुक्ल साहित्य का उद्देश्य एकता मानते हुए लिखते हैं-'लोक-जीवन में जहां भिन्नताएं हैं, असमानताएं हैं, दीवारें हैं, साहित्य वहां जीवन की एकरूपता स्थापित करता है।" १. प्रेमचंद, पृ० १०-११
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