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आ• तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण
राष्ट्रपति डॉ० शंकरदयाल शर्मा केवल विषय प्रतिपादन या तथ्यों के प्रस्तुतीकरण को ही साहित्य का उद्देश्य मानने को तैयार नहीं हैं। वे तो लिखने की सार्थकता तभी स्वीकारते हैं जब लिखे तथ्य को कोई याद रखे, तिलमिलाए, सोचने को बाध्य हो जाए, गुनगुनाता रहे तथा ऊभ-चूभ करने को विवश हो जाए । अतः साहित्य का उद्देश्य यही होना चाहिए कि यथार्थ को इतने प्रभावशाली और हृदयस्पर्शी ढंग से व्यक्त किया जाए कि पाठक उस सोच को क्रियान्वित करने की दिशा में प्रयाण कर दे। अतः साहित्य समाज का दर्पण या एक्सरे ही नहीं, कुशल मार्गदर्शक भी होता है। लोकप्रवाह में बहकर कुछ भी लिख देना साहित्य की महत्ता को संदिग्ध बना देना है । संक्षेप में लेखन के उद्देश्य को निम्न बिंदुओं में प्रकट किया जा सकता है
० अंधकार से प्रकाश की ओर चलने और दूसरों को ले चलने के लिए
लिखा जाए। ० जड़ता, अंधविश्वास और अज्ञान से मुक्ति पाने के लिए लिखा
जाए। ० शोषण और अन्याय के विरुद्ध तनकर खड़ा होने की प्रेरणा देने के
लिए लिखा जाए। ० व्यक्ति और समाज को बदलने और दायित्वबोध जगाने के लिए
लिखा जाए। • अपनी वेदना को दूसरों की वेदना से जोड़ने के लिए लिखा
जाए। ० पाशविक वृत्तियों से देवत्व की ओर गति करने के लिए लिखा
जाए।
आचार्य तुलसी के साहित्य में इन सब उद्देश्यों की पूर्ति एक साथ दृष्टिगोचर होती है क्योंकि उन्होंने कलम एवं वाणी की शक्ति का उपयोग सही दिशा में किया है। उनका लेखन एवं वक्तव्य लोकहित के साथ आत्महित से भी जुड़ा हुआ है । वे अनेक बार इस बात की अभिव्यक्ति देते हुए कहते हैं“आत्मभाव का तिरस्कार कर यदि साहित्य का सृजन या प्रकाशन होता है तो वह मुझे प्रिय नहीं होगा।"१ इन पंक्तियों से स्पष्ट है कि साहित्यकार कहलवाने के लिए कोई कलात्मक चमत्कार प्रस्तुत करना उन्हें अभीष्ट नहीं है। यही कारण है कि उनके साहित्य में सत्य का अनुगुंजन है, मानवीय संवेदना को जागृत करने की कला है, तथा युग की अनेक ज्वलंत समस्याओं के समाधान का मार्ग है। उनका साहित्य सामाजिक विसंगतियों के विरुद्ध आवाज ही
१. जैन भारती, २६ जनवरी, १९६४ ।
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