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________________ १३८ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण लिए आवश्यक है । जो लोग बाह्य आकर्षण से प्रेरित होकर धर्म करते हैं, वे धर्म का रहस्य नहीं समझते। इसी क्रांति को बुलंदी दी आचार्य तुलसी ने । वे कहते हैं---"धर्म के मंच पर यह नहीं हो सकता कि एक धनवान् अपने चंद चांदी के टुकड़ों के बल पर तथा एक बलवान् अपने डण्डे के प्रभाव से धर्म को खरीद ले और गरीब व निर्बल अपनी निराशा भरी आंखों से ताकते ही रह जाएं। धर्म को ऐसी स्वार्थमयी असंतुलित स्थिति कभी मंजूर नहीं है। उसका धन और बलप्रयोग से कभी गठबंधन नहीं हो सकता। उसे उपदेश या शिक्षा द्वारा हृदय-परिवर्तन करके ही पाया जा सकता है।" आचार्य तुलसी ने स्पष्ट शब्दों में धर्मक्षेत्र की कमजोरियों को जनता के समक्ष प्रस्तुत किया है । उनके द्वारा की गयी धर्मक्रान्ति ने प्रचण्ड विरोध की चिनगारियां प्रज्वलित कर दीं। पर उनका अडोल आत्मविश्वास किसी भी परिस्थिति में डोला नहीं। यही कारण है कि आज समाज एवं राष्ट्र ने उनका मूल्यांकन किया है । वे स्वयं भी इस सत्य को स्वीकारते हैं - "एक धर्माचार्य धर्मक्रान्ति की बात करे, यह समझ में आने जैसी घटना नहीं थी। पर जैसे-जैसे समय बीत रहा है, परिस्थितियां बदल रही हैं, यह बात समझ में आने लगी है। मेरा यह विश्वास है कि शाश्वत से पूरी तरह से अनुबंधित रहने पर भी सामयिक की उपेक्षा नहीं की जा सकती।" जो धार्मिक विकृतियों को देखकर धर्म को समाप्त करने की बात सोचते हैं, उन व्यक्तियों को प्रतिबोध देने में भी आचार्य तुलसी नहीं चूके हैं । इस संदर्भ में वे सहेतुक अपना अभिमत प्रस्तुत करते हैं---- "आज तथाकथित धार्मिकों का व्यवहार देखकर एक ऐसा वर्ग उत्तरोत्तर बढ़ रहा है, जो धर्म को ही समाप्त करने का विचार लेकर चलता है । लेकिन यह बात मेरी समझ में नहीं आती कि क्या पानी के गंदा होने से मानव पानी पीना ही छोड़ दे ? यदि धर्म बीमार है या संकुचित हो गया है तो उसे विशुद्ध करना चाहिए पर उसे समाप्त करने का विचार ठीक नहीं हो सकता । मेरी ऐसी मान्यता है कि बिना धर्म के कोई जीवित नहीं रह सकता।"२ धर्म का विरोध करने वालों को भविष्य की चेतावनी के रूप में वे यहां तक कह चुके हैं.–“जिस दिन धर्म की मजबूत जड़ें प्रकम्पित हो जाएंगी, इस धरती पर मानवता की विनाशलीला का ऐसा दृश्य उपस्थित होगा, जिसे देखने की क्षमता किसी भी आंख में नहीं रहेगी।"3 १. जैन भारती, २० जून १९५४ । २. जैन भारती, ३१ मई १९७० । ३. एक बूंद : एक सागर, पृ. ७२५। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003117
Book TitleAcharya Tulsi Sahitya Ek Paryavekshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages708
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size23 MB
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