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गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन
१३७ प्ररूपित आदर्श जीवन में उतरें। इस प्रसंग में धार्मिकों के समक्ष उनके प्रश्न हैं
• भगवान् का चरणामृत लेने वाले आज बहुत मिल सकते हैं।
उनकी सवारी पर फूल चढाने वालों की भी कमी नहीं है। पर
भगवान् के पथ पर चलने वाले कितने हैं ? ० व्यापार में जो अनैतिकता की जाती है, क्या वह मेरी प्रशंसा मात्र से धुल जाने वाली है । दिन भर की जाने वाली ईर्ष्या, आलोचना एक दूसरे को गिराने की भावना का पाप, क्या मेरे पैरों में सिर रखने मात्र से साफ हो जाएंगे ? ये प्रश्न मुझे बड़ा बेचैन कर
देते हैं।'
धर्म मानव-चेतना को विभक्त करके नहीं देखता। इसी बात को वे उदाहरण की भाषा में प्रस्तुत करते हैं
० "जिस प्रकार कुए आदि पर लेबल लगा दिए जाते हैं 'हिन्दुओं के लिए' 'मुसलमानों के लिए' 'हरिजनों के लिए' आदि-आदि । क्या धर्म के दरवाजे पर भी कहीं लेबल मिलता है ? हां । एक
ही लेबल मिलता है--"आत्म उत्थान करने वालों के लिए।"२
धर्म की सुरक्षा के नाम पर हिंसा करने वाले साम्प्रदायिक तत्त्वों को प्रतिबोध देते हुए वे कहते हैं
० "कहा जाता है-धर्मो रक्षति रक्षितः "धर्म की रक्षा करो, धर्म
तुम्हारी रक्षा करेगा।" इसका तात्पर्य यह नहीं कि धर्म को बचाने के लिए अड़गे करो, हिंसाएं करो। इसका अर्थ है कि धर्म को ज्यादा से ज्यादा जीवन में उतारो, धर्माचरण करो, धर्म
तुम्हारी रक्षा करेगा, तुम्हें पतन से बचाएगा।"3
इस प्रसंग में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की मार्मिक एवं प्रेरणादायी पंक्तियों को उद्धृत करना भी अप्रासंगिक नहीं होगा---
हम आड़ लेकर धर्म की, अब लीन हैं विद्रोह में, मत ही हमारा धर्म है, हम पड़ रहे हैं मोह में। है धर्म बस निःस्वार्थता ही प्रेम जिसका मूल है, भूले हुए हैं हम इसे, कैसी हमारी भूल है।
धर्म के क्षेत्र में बलप्रयोग और प्रलोभन दोनों को स्थान नहीं है । इन दोनों विकृतियों के विरुद्ध आचार्य भिक्षु ने सशक्त स्वरों में क्रान्ति की। धर्म भौतिक प्रलोभन एवं सुख-सुविधा के लिए नहीं, अपितु आत्म-शांति के १. एक बूंद : एक सागर, पृ. १७०४ । २-३. प्रवचन पाथेय, भाग ९ पृ. ८ ।
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