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गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन को वे विशेष रूप से प्रतिबोध देते हैं-"नारी के मुख से जब मैं समानाधिकार की बात सुनता हूं तो मुझे जचता नहीं। कैसा समानाधिकार ? नारी के तो अपने अधिकार ही बहुत बड़े हैं। वह परिवार, समाज और राष्ट्र की निर्मात्री है। वह समान अधिकार की नहीं, स्व-अधिकार की अधिकारिणी है। कभी-कभी मुझे लगता है नारी पुरुष के बराबर ही नहीं, उसके विरोध में खड़ी होने का प्रयत्न कर रही है पर यह प्रतिक्रिया है; उसके विकास में बाधा है।" आचार्य तुलसी के इस चितन का यही निष्कर्ष है कि समाज तभी विकसित, गतिशील एवं सचेतन रह सकता है, जब स्त्री और पुरुष दोनों अपनी-अपनी सीमाओं में रहकर अपने कर्तव्यों का पालन करते रहें। परिवार
परिवार समाज की महत्त्वपूर्ण एवं बुनियादी इकाई है । पाश्चात्त्य देशों में परिवार पति-पत्नी पर आधारित हैं पर भारतीय परिवारों के मुख्य केन्द्र बालक, माता-पिता एवं दादा-दादी होते हैं। आचार्य तुलसी संयुक्त परिवार के पक्षपाती हैं क्योंकि इसमें निश्चिन्तता और स्थिरता रहती है । उनका मानना है कि परिवार के टूटने का प्रभाव केवल वर्तमान पीढ़ी पर ही नहीं पड़ता उससे भावी पीढ़ियां भी प्रभावित हुए बिना नहीं रहतीं। ....... वर्तमान पीढ़ी की थोड़ी-सी असावधानी आने वाली कई पीढ़ियों को मानसिक दृष्टि से अपाहिज या संकीर्ण बना सकती है।"२ ।।
आज संयुक्त परिवारों में तेजी से बिखराव आ रहा है। समाजशास्त्रियों ने पारिवारिक विघटन के अनेक कारणों की मीमांसा की है। आचार्य तुलसी की दृष्टि में व्यक्तिवादी मनोवृत्ति, असहिष्णुता, सन्देह, अहंकार, औद्योगीकरण, मकान तथा यातायात की समस्या आदि तत्त्व परिवार-विघटन में मुख्य निमित्त बनते हैं। पर सबसे बड़ा कारण वे पश्चिमी सभ्यता के प्रभाव को मानते हैं-"पश्चिमी सभ्यता की घुसपैठ ने परिवार में बिखराव तो ला दिया, पर अकेलेपन की समस्या का समाधान नहीं किया ।"
' पारिवारिक विघटन से उत्पन्न कठिनाइयों को प्रस्तुत करते उनके ये सटीक प्रश्न आज की असहिष्णु पीढ़ी को कुछ सोचने को मजबूर कर रहे हैं-"स्वतन्त्र परिवार में कुछ सुविधाएं भले ही हों, पर उनकी तुलना में कठिनाइयां अधिक हैं। सबसे बड़ी कठिनाई है विरासत में प्राप्त होने वाले
१. जैन भारती, १६ मार्च १९५८ । २. बीति ताहि विसारि दे, पृ० ६८ । ३. मनहंसा मोती चुगे, पृ० १०३ ।
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