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अ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण
अहिंसा यदि इन समस्याओं का समाधान देती है तो उसका तेजस्वी रूप स्वयं प्रतिष्ठित हो जायेगा, अन्यथा वह हतप्रभ होकर रह जायेगी ।'
अहिंसा को तेजस्वी और शक्तिशाली बनाए बिना उसकी प्रतिष्ठा की बात आकाश - कुसुम की भांति व्यर्थ है । इसको स्थापित करने के लिये वे भावनात्मक परिवर्तन, हृदय परिवर्तन या मस्तिष्कीय प्रशिक्षण को अनिवार्य मानते हैं । '
आचार्य तुलसी की दृष्टि में अहिसा की प्रतिष्ठा में मुख्यतः चार
बाधाएं हैं
१. साधन - शुद्धि का अविवेक ।
२. अहिंसा के प्रति आस्था की कमी ।
३. अहिंसा के प्रयोग और प्रशिक्षण का अभाव ।
४. आत्मौपम्य भावना का ह्रास |
अहिंसा की प्रतिष्ठा में पहली बाधा है-साधन-शुद्धि का अविवेक । साध्य चाहे कितना ही प्रशस्त क्यों न हो, यदि साधन-शुद्ध नहीं है तो अहिंसा का शांति का अवतरण नहीं हो सकता। क्योंकि हिंसा के साधन से शांति कैसे संभव होगी ? रक्त से रंजित कपड़ा रक्त से साफ नहीं होगा । आचार्यश्री कहते हैं- " किसी भी समस्या का समाधान हिंसा, आगजनी और लूट-खसोट से कभी हुआ नहीं और न ही कभी भविष्य में होने की संभावना है ।"
अहिंसा की प्रतिष्ठा में दूसरी बाधा है- अहिंसा के प्रति आस्था की कमी । इस प्रसंग में वे अपने अनुभव को इन शब्दों में व्यक्त करते हैं"अहिंसा की प्रतिष्ठा न होने का कारण मैं अहिंसा के प्रति होने वाली ईमानदारी की कमी को मानता हूं। लोग अहिंसा की आवाज तो अवश्य उठाते हैं, किन्तु वह आवाज केवल कंठों से आ रही है, हृदय से नहीं ।
अहिंसा की प्रतिष्ठा में तीसरी बाधा है -अहिंसा के प्रशिक्षण का अभाव । अहिंसा की परम्परा तब तक अक्षुण्ण नहीं बन सकती, जब तक उसका सफल प्रयोग एवं परीक्षण न हो । अहिंसा की प्रतिष्ठा हेतु प्रयोग एवं परीक्षण करने वाले शोधकर्त्ताओं के समक्ष वे निम्न प्रश्न रखते हैं
• शस्त्र की ओर सबका ध्यान जाता है, पर शस्त्र बनाने और रखने वाली चेतना की खोज किस प्रकार हो सकती है ?
अहिंसा का संबंध मानवीय
वृत्तियों के साथ ही है या प्राकृतिक
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१. अणुव्रत : गति - प्रगति, पृ० १४० २. अमृत-संदेश, पृ० - २३
३. अणुव्रत : गति - प्रगति, पृ० १४५
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