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गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन
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चोट पहुंचाई है । ....."जिस आवश्यकता से दूसरे का अधिकार छीना जाता है या उसमें बाधा पहुंचती है, वह आवश्यकता नहीं, अनधिकार चेष्टा हो जाती है। ......"यदि पूंजीपति लोग अपने आपको नहीं बदलेंगे तो इसके संभावित भीषण परिणाम भी उन्हें अतिशीघ्र भोगने होंगे।"
___ जीवन के यथार्थ सत्य को वे अनुभूति के साथ जोड़कर मनोवैज्ञानिक भाषा में कहते हैं-"मैं पर्यटक हूं। मुझे गरीब-अमीर सभी तरह के लोग मिलते हैं, पर जब उन कोट्याधीश धनवानों को देखता हूं तो वे मुझे अन्न व पानी के स्थान पर हीरे-पन्ने खाते नजर नहीं आते। मुझे आश्चर्य होता है कि तब फिर क्यों वे धन के पीछे शोषण और अत्याचारों से अपने आपको पाप के गड्ढे में गिराते हैं।"
वे अनेक बार इस बात को अभिव्यक्ति देते हैं-"जागृत समाज वह है, जिसके प्रत्येक सदस्य के पास अपने मूलभूत अधिकार हों, सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति के साधन हों और सुख दुःख में एक-दूसरे के प्रति समभागिता हो।'
समाज की इस विषम स्थिति में परिवर्तन लाने हेतु वे ऐसी समाजव्यवस्था की आवश्यकता महसूस करते हैं, जिसमें पैसे का नहीं, अपितु त्याग का महत्त्व रहे।" इसके लिए वे मार्क्स की आर्थिक क्रांति को असफल मानते हैं बल्कि ऐसी आध्यात्मिक क्रांति की अपेक्षा महसूस करते हैं, जो समाज में बिना किसी रक्तपात एवं हिंसा के सन्तुलन बनाए रख सके। उस आध्यात्मिक क्रांति के महत्त्वपूर्ण सूत्र के रूप में उन्होंने समाज को विसर्जन का सूत्र दिया।। वे खुले शब्दों में समाज को प्रतिबोध देते रहते हैं ---"विसर्जन के बिना अर्जन दुःखदायी और नुकसान पहुंचाने वाला होगा। विसर्जन की चेतना विकसित होते ही अनैतिक और अमानवीय ढंग से किए जाने वाले संग्रह पर स्वतः रोकथाम लग जाएगी।"
अर्थ के सम्यक् उपयोग एवं नियोजन के बारे में भी आचार्य तुलसी ने समाज को नई दृष्टि दी है । वे लोगों की विसंगतिपूर्ण मानसिकता पर व्यंग्य करते हैं- "समाज के अभावग्रस्त जरूरतमंद लोगों के लिए कहीं अर्थ का नियोजन करना होता है तो दस बार सोचा जाता है और बहाने बनाए जाते हैं, जबकि विवाह आदि प्रसंगों में मुक्त मन से अर्थ का व्यय किया जाता है ।''... फैशन के नाम पर होने वाली वस्तुओं की खरीद-फरोख्त में कितना ही पैसा लग जाए, कभी चिन्तन नहीं होता और धार्मिक साहित्य लेना हो तो कीमतें आसमान पर चढ़ी हुई लगती हैं। क्या यह चिंतन का
१. एक बूंद : एक सागर, पृ० १४९३ ।। २. जैन भारती, २६ जून १९५५। ..
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