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उनतीस
साध्वीप्रमुखा कनकप्रभाजी कर रही हैं । इतने विशाल साध्वी समाज का नेतृत्व करते हुए भी कई दर्जन पुस्तकों का सम्पादन आश्चर्य का विषय है । प्रवचन - साहित्य का संपादन मुनिश्री धर्मरुचिजी निष्ठापूर्वक कर रहे हैं । इसके अतिरिक्त मुनिश्री मधुकरजी, मुनिश्री गुलाबचंदजी 'निर्मोही', साध्वीश्री जिनप्रभाजी तथा श्रीचंदजी रामपुरिया आदि ने भी उनके प्रवचनों एवं लेखों का सम्पादन किया है।
प्रस्तुत कार्य की प्रेरणा
सन् १९८५ की बात है । मैं लाडनूं में आगमकार्य में संलग्न थी । व्यवहार भाष्य के संशोधन का कार्य चल रहा था । चातुर्मास के दौरान एक शोधविद्यार्थी, जो भारतीय नीति दर्शन पर पी. एच. डी. का कार्य कर रहा था, मार्ग-दर्शन प्राप्त करने लाडनूं पहुंचा । वह शोध विद्यार्थी आचार्य तुलसी के अणुव्रत दर्शन के बारे में जानकारी प्राप्त करना चाहता था । मैंने उस भाई को वर्द्धमान ग्रन्थागार में आचार्य तुलसी की अनेक पुस्तकें सुझाईं । पर मेरे मन को संतोष नहीं हुआ, क्योंकि सामग्री विकीर्ण थी । शोधविद्यार्थी होने के नाते तत्काल मेरे मन में विकल्प उठा कि आचार्य तुलसी की वाणी एक द्रष्टा की वाणी है। उनकी तपःपूत साधना से निःसृत वाणी अनेक धाराओं तथा अनेक विषयों में प्रवाहित हुई है । अत: उनकी कृतियों में आये विषयों का यदि वर्गीकरण कर दिया जाए और एक स्थान पर ही निदेश कर दिया जाए तो अनेक शोध - विद्यार्थियों को आचार्य तुलसी पर पी. एच. डी. करने में सुविधा हो सकती है । इस श्रमसाध्य कार्य को करने के पीछे एक दृष्टिकोण यह भी था कि आचार्य तुलसी का अनुशास्ता रूप जितना उभर कर सामने आया है, उतना साहित्यकार का रूप नहीं, जबकि उन्होंने एक नहीं, अनेक कालजयी कृतियों से साहित्य भंडार को समृद्ध किया है। शोध विद्यार्थी तो मात्र निमित्त बना। मुनिश्री दुलहराजजी का सकारात्मक समर्थन एवं गुरुदेव के मंगल आशीर्वाद से मेरी चेतना में हल्का-सा साहित्यिक स्पंदन हुआ । पूज्यपाद गुरुदेव का नाम स्मरण कर कार्य प्रारम्भ किया और सन् १९८६ में 'अमृत महोत्सव' के अवसर पर विषय - वर्गीकरण का कार्य सम्पन्न कर हस्तलिखित पत्रिका 'वातायन' के रूप में यह कार्य गुरु चरणों में उपहृत किया । कार्य करते समय इसके प्रकाशन की तो स्वप्न में भी कल्पना नहीं की थी, बस स्वान्तः सुखाय और समय का सही नियोजन इन उद्देश्यों के साथ यह कार्य किया नियति थी ।
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पर प्रकाशन इसकी
जब प्रकाशन की बात चली, तब पहले किया हुआ कार्य इतना उपयोगी सिद्ध नहीं हुआ, क्योंकि अनेक नई पुस्तकें भी प्रकाश में आ गई थीं
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