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________________ तीस तथा कई पुस्तकों के नए संस्करण भी निकल चुके थे, अत: पुनः १९९३ के जून मास में यह कार्य प्रारम्भ किया और आज सम्पन्न है।। __शोध विद्यार्थी होने के कारण कार्य करते समय अनेक बार यह विकल्प उठा कि आचार्यश्री के साहित्यिक, सामाजिक एवं आध्यात्मिक विचारों का महावीर, बुद्ध, कृष्ण, गांधी, विवेकानंद, अरविंद, टालस्टाय, रस्किन तथा अन्य अनेक प्राच्य एवं पाश्चात्य विद्वानों के साथ तुलनात्मक अध्ययन क्यों न किया जाए। क्योंकि अनुभूति के स्तर पर निकली हुई वाणी किसी भी काल या देश में प्रस्फुटित हो, उसमें सामंजस्य एवं समानता मिल ही जाती है । किन्तु समस्या यह थी कि आचार्यश्री द्वारा सजित विशाल श्रतराशि का अवगाहन श्रम एवं स्मृतिसापेक्ष ही नहीं, समयसापेक्ष भी था, अतः चाहकर भी ऐसा सम्भव नहीं हो सका । दूसरी कठिनाई यह थी यह ग्रंथ अपने-आप में इतना बड़ा हो गया कि तुलनात्मक अध्ययन का अवकाश ही नहीं रहा। पर इस दिशा में भविष्य में बहुत काम हो सकता है, यह असंदिग्ध रूप से कहा जा सकता है। ___ एक साल का लम्बा समय लगने पर भी ऐसा बार-बार प्रतीत हो रहा है कि यह मात्र प्रारम्भिक प्रयास है। यह दावा करना तो निरा अहंकार प्रदर्शन ही होगा कि यह वर्गीकरण बिल्कुल सही हुआ है। लेकिन यह सामान्य प्रयास भी अनेक शोधार्थियों की विचार-यात्रा में सहयोगी बनेगा, ऐसा विश्वास है ।। __ पाठक आचार्य तुलसी को एक सम्प्रदाय-विशेष के आचार्य के रूप में नहीं, अपितु मानवता के मसीहा या सांस्कृतिक नेता के रूप में पढ़ने का प्रयत्न करेंगे तो उन्हें अवश्य नया आलोक मिलेगा, ऐसा मेरा विश्वास है। एक बात पर पाठक विशेष ध्यान देंगे कि आचार्य तुलसी वर्तमान में गणाधिपति अणुव्रत अनुशास्ता तुलसी के रूप में प्रसिद्ध हैं। क्योंकि उन्होंने आचार्य पद का विसर्जन कर युवाचार्य महाप्रज्ञ को आचार्य बना दिया है। चूंकि यह घटना सुजानगढ़ १९९४ के फरवरी मास में घटित हुई और तब तक इस पुस्तक का काफी अंश प्रकाशित हो चुका था, अतः मैंने एकरूपता बनाए रखने की दृष्टि से आचार्य तुलसी एवं युवाचार्य महाप्रज्ञ शब्द का ही प्रयोग किया है। आचार्य तुलसी के प्रति अनन्त आस्था होने पर भी मैंने तटस्थ समालोचक की दृष्टि से इस बात की पूरी सतर्कता रखी है कि कहीं उन्हें तेरापन्थ के आचार्य के रूप में प्रतिष्ठित कर उनके व्यक्तित्व को सीमित न कर दूं। इस पुस्तक में मुख्यतः उनके इन्द्रधनुषी व्यक्तित्व का एक ही पहल उजागर हुआ है । वह है -सृजनशील साहित्यकार । - आचार्य तुलसी के सम्पूर्ण वाङमय को केवल भक्तहृदय से नहीं, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003117
Book TitleAcharya Tulsi Sahitya Ek Paryavekshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages708
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size23 MB
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