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इकतीस
अपितु तटस्थ समालोचक की दृष्टि से पढ़ा है। उनके साहित्य के बारे में मैं अपनी अनुभूति गांधीजी के इन शब्दों में प्रकट करना चाहूंगी--'पुस्तकें अच्छी मित्र हैं। जितना ही मैं इन पुस्तकों का अध्ययन करता गया, उतना ही अधिक मुझे उनकी विशेषताएं/उपयोगिताएं मालूम होती गयीं ।"
___भूमिका लेखनकाल में मेरे कानों में आचार्य तुलसी की ये पंक्तियां सदैव गूंजती रहीं- 'मैं अपनी समालोचना सुनना पसंद करता हूं, प्रशस्ति नहीं । मैंने अपने अनुयायियों को यह भी कह दिया है कि मेरे सम्बन्ध में जो साहित्य लिखा जाए, वह भी समालोचनात्मक हो, ताकि उससे मुझे कुछ प्रेरणा मिले और मैं अपने को देख सकू ।'
मेरी अग्रिम साहित्यिक यात्रा अभी गुरुदेव के इंगित की प्रतीक्षा में है । उनके द्वारा सौंपे गए नियुक्ति एवं भाष्य के संपादन के कार्य में मुझे लगना है और इस प्राचीनतम श्रुतराशि को व्यवस्थित रूप से सुसंपादित कर श्रुत की सेवा के ब्याज विद्वदवर्ग को उस श्रतनिधि का परिचय देना है। वह विशाल श्रुतराशि अभी भी अप्रकाशित पड़ी है पर इतना निश्चित संकल्प है कि अवकाश-प्राप्त क्षणों में आचार्यवर के गद्य साहित्य की भांति पद्य साहित्य का विवेचन, विश्लेषण एवं समालोचन भी पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करना है। यह कहना कोई अत्युक्ति नहीं होगी कि गद्य की अपेक्षा उनका पद्य अधिक सहज, सरल, सशक्त, प्रभावी, मार्मिक एवं हृदयग्राही है।
आचार्य तुलसी सृजन के देवता हैं। उन्होंने मेरे जीवन-पथ पर प्रेरणा के दीपे जलाए हैं। उनका चिंतन था कि नियुक्ति और भाष्य साहित्य जल्दी प्रकाश में आये। इस दृष्टि से वे नहीं चाहते थे कि मैं अपनी शक्ति इस कार्य में नियोजित करूं । पर नियति का योग है कि यह कार्य पहले संपन्न हुआ है।
प्रस्तुत कार्य के संपादन में मैंने पूज्य गुरुदेव को सदैव अपने निकट पाया है, यह बात अनुभूतिगम्य है । वे मेरी हर प्रवृत्ति में ऊर्जा के स्रोत रहे हैं, अतः उनके प्रति अहोभाव ज्ञापित करने के लिए मेरे पास कोई शब्द नहीं है । पूज्य आचार्य महाप्रज्ञजी, महाश्रमणी साध्वीप्रमुखाजी एवं महाश्रमण मुनि मुदितकुमारजी का मार्गदर्शन एवं आशीर्वाद भी इस कार्य में योगभूत बना है ।
अस्वस्थ होते हुए भी साध्वीश्री सिद्धप्रज्ञाजी ने आद्योपान्त प्रूफ रीडिंग एवं अनेक सुझाव प्रदान कर इस पुस्तक को रमणीयता प्रदान की है। समणी सहजप्रज्ञाजी एवं मुमुक्षु प्रेम (वर्तमान साध्वी परिमलप्रभाजी) का प्रेस-कापी तैयार करने में अल्पकालिक सहयोग भी बहुत मूल्यवान् रहा है । मुनिश्री श्रीचंदजी 'कमल' ने इसके प्रथम परिशिष्ट की अनुक्रमणिका का निरीक्षण कर मेरे कार्य को हल्का किया है।
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