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चौदह
स्थानों से क्रमशः एकत्रित करना बहुत बड़ा दुस्साहस है। विश्व की सर्वोच्च पर्वत श्रेणी पर पहुंचन। संभवतः सरल होगा लेकिन इतना बड़ा कार्य करना अत्यंत दुष्कर है । इस दुष्कर कार्य को समणी कुसुमप्रज्ञा ने जिस मनोयोग के साथ किया है, उसके संबंध में कहने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं। मैं तो यह कहूंगा कि अपने आचार्य की इससे बड़ी सेवा और दूसरी नहीं हो सकती। मैं समणी कुसुमप्रज्ञा को कोटिशः धन्यवाद देना चाहूंगा और उनकी स्वयं तथा आचार्य के प्रति विनम्र सेवा के लिए प्रशंसा करूंगा।
___ आचार्य तुलसी के अनेक सहकर्मियों से मैं मिला हूं। मुझे प्रसन्नता इस बात की है कि आचार्यजी के प्रायः सभी सहकर्मी काव्य, लेख, कहानी और दर्शन में से किसी न किसी विधा में पारंगत हैं। अर्थ यह हुआ कि जो भी आचार्यजी के साथ चल रहा है, वह स्वयं विज्ञ है और श्रमण परंपरा के दुष्कर संस्कारों के साथ अपनी सृजनशीलता को भी जीवित रखे हुए है। मैं समणी कुसुमप्रज्ञा के बहाने आचार्यजी के उन सभी अनुयायियों को अपनी विनम्र शुभकामनाएं देना चाहूंगा।
इत्यलम्
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7.4
--- राजन्द्र अवस्थी
संपादक, "कादम्बिनी', हिंदुस्तान टाइम्स, नयी दिल्ली-११०००१
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