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गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन
---"जब जैसी जनता सामने होती है, मैं अपने प्रवचन का विषय, भाषा और शैली बदल लेता हूं।' आचार्यकाल के प्रारम्भिक वर्षों में उनके प्रवचन प्रायः राजस्थानी भाषा में होते थे किन्तु आज वे सुरक्षित नहीं हैं । बाद में जन-जन तक अपनी क्रांत वाणी को पहुंचाने के लिए उन्होंने राष्ट्र-भाषा हिन्दी को प्रवचन का माध्यम बनाया । हिन्दी प्रवचनों की उनकी पचासों पुस्तकें प्रकाश में आ चुकी हैं तथा अनेक पुस्तकें प्रकाशनाधीन हैं।
उनकी विद्वत्ता भाषा में उलझकर जटिल एवं बोझिल नहीं, अपितु अनुभूति की उष्णता से तरल बन गयी है। आस्तिक हो या नास्तिक, विद्वान् हो या अनपढ़, धनी हो या गरीब, स्त्री हो या पुरुष, बालक हो या वृद्ध सभी एक रस, एकतान होकर उनकी वाणी के जादू से बंध जाते हैं। उनकी वाणी में वह आकर्षण है कि जो प्रभाव रोटरी क्लब और वकील ऐसोसिएशन के सदस्यों के बीच पड़ता है, वही प्रभाव संस्कृत
और दर्शन के प्रकाण्ड पण्डितों के मध्य पड़ता है। पूरे प्रवचन साहित्य में भाषागत यही आदर्श दिखलाई पड़ता है कि वे अधिक से अधिक लोगों तक अपनी बात पहुंचाना चाहते हैं । अतः उनके प्रवचन साहित्य में कठिन से कठिन दार्शनिक विषय भी व्यावहारिक, सहज, सरस, सजीव, सुबोध एवं अर्थपूर्ण भाषा में व्यक्त हुए हैं। लांग फेलो की निम्न उक्ति उनके प्रवचन की भाषा-शैली में पूर्णतया खरी उतरती है-''व्यवहार में, शैली में और अपने तौर तरीकों में सरलता ही सबसे बड़ा गुण है। नरेन्द्र कोहली कहते हैं --- 'पाठक सब कुछ क्षमा कर सकता है, पर लेखक में बनावट, दिखावा, लालसा को क्षमा नहीं कर सकता।" अनुभूति की सचाई अभिव्यक्त होने के कारण उनके प्रवचन साहित्य की भाषा साहित्यक न होने पर भी सरल और प्रवाहमयी है। उसमें आत्मबल और संयम का तेज जुड़ने से वह प्रभावी बन गयी है । यही कारण है कि वे अपनी वाणी के प्रभाव में कहीं भी संदिग्ध नहीं हैं
"मैं जानता हूं, मेरे पास न रेडियो है, न अखबार है और न आज के प्रचार योग्य वैज्ञानिक साधन हैं। ...... लेकिन मेरी वाणी में आत्मबल है, आत्मा की तीव्र शक्ति है और मुझे अपने संदेश के प्रति आत्मविश्वास है फिर कोई कारण नहीं, मेरी यह आवाज जनता के कानों से नहीं टकराए।
प्रवचन शैली के बारे में अपना अभिमत व्यक्त करते हुए वे कहते हैं-"प्रवचन शैली का जहां तक प्रश्न है, मैं नहीं जानता उसमें कोई विशिष्टता है । न मैं दार्शनिक लहजे में बोलता हूं और न मेरी भाषा पर कोई साहित्यिक प्रभाव ही होता है । मैं तो अपनी मातृभाषा (राजस्थानी) अथवा
१. प्रेमचन्द्र, पृ० १९३ २. १५ अगस्त १९४७, प्रथम स्वाधीनता दिवस पर प्रदत्त
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