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________________ गद्य साहित्य ; पर्यालोचन और मूल्यांकन १०५ है, समाज पर आई कठिन घड़ियों के समय घरों में छिपकर अपनी जान बचाने का उपाय करता है, वहां भले ही वह स्थूल रूप से हिंसा से बच रहा है किंतु सूक्ष्मता से और गहरे में वह हिंसक ही है। वहां हिंसा ही होती है, अहिंसा नहीं। क्योंकि जहां व्यक्ति प्राणों के व्यामोह से अपनी जान बचाए फिरता है, वहां कायरता है, भय है, मोह है, इसलिए हिंसा है। युद्ध में मारना भी हिसा है, भागना भी हिसा है, किंतु जहां व्यक्ति सर्वथा अभय है, निर्भय है, वहां अहिंसा है।'' इसी सन्दर्भ में उनकी दूसरी टिप्पणी भी मननीय है---व्यक्ति समाज में जीता है अतः समाज और राष्ट्र की सुरक्षा का दायित्व ओढ़ने वाला व्यक्ति युद्ध के अनिवार्य कारणों को देखता हुआ भी उसे नकार नहीं सकता। जहां युद्ध की स्थिति को टाला न जा सके वहां अहिंसा का अर्थ यह नहीं कि कायरतापूर्वक युद्ध के मैदान से भागा जाए। साथ ही वे यह भी स्पष्ट करते हैं कि राष्ट्रीय सुरक्षा हेतु युद्ध अनिवार्य हो सकता है, एक सामाजिक प्राणी उससे विमुख नहीं हो सकता पर युद्ध में होने वाली हिंसा को अहिंसा की कोटि में नहीं रखा जा सकता। अनिवार्य हिंसा भी अहिंसा नहीं बन सकती।" युद्ध की स्थिति में भी अहिंसा को जीवित रखा जा सकता है, हिंसा का अल्पीकरण हो सकता है. इस बारे में आचार्य तुलसी ने पर्याप्त चितन किया है । वे कहते हैं-. "युद्ध में होने वाली हिसा को अहिंसा नहीं माना जा सकता किंतु उसमें अहिंसा के लिए बहुत बड़ा क्षेत्र खुला है । जैसे- आक्रांता न बनें, निरपराध को न मारें, अपाहिजों के प्रति क्रूर व्यवहार न करें, अस्पताल, धर्मस्थान, स्कूल, कालेज आदि पर आक्रमण न करें, आबादी वाले स्थानों पर बमबारी न करें आदि नियम युद्ध में भी अहिंसा की प्रतिष्ठा करते हैं। क्या युद्ध का समाधान अहिंसा बन सकती है ? इस प्रश्न के समाधान में उनका मंतव्य है-“युद्ध का समाधान असंदिग्ध रूप से अहिंसा और मैत्री है। क्योंकि शस्त्र परम्परा से कभी युद्ध का अंत नहीं हो सकता । शक्ति सन्तुलन के अभाव में बंद होने वाले युद्ध का अंत नहीं होता । वह विराम दूसरे युद्ध की तैयारी के लिये होता है। इस सन्दर्भ में उनका निम्न प्रवचनांश उद्धरणीय है - "मनुष्य कितना भी युद्ध करे, अंत में उसे समझौता १. दायित्व का दर्पण : आस्था का प्रतिबिम्ब, पृ. १३-१४ । २. शांति के पथ पर, पृ० ७० । ३. अणुव्रत : गति प्रगति, पृ० १५१ । ४. अणुव्रत : गति प्रगति, १५०-१५१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003117
Book TitleAcharya Tulsi Sahitya Ek Paryavekshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages708
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size23 MB
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