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गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन
पत्र
पत्र लेखन की परम्परा बहुत प्राचीन है पर इसे साहित्यिक रूप आधुनिक युग ( भारतेन्दु युग) में दिया गया है। पत्र केवल प्रगाढ़ आत्मीय संबंधों की सरस अभिव्यक्ति ही नहीं होते, अनौपचारिक शिक्षा का जो सजीव चित्र इनमें उभर पाता है, वह अन्यत्र दुर्लभ है । डा. शिवमंगल सिंह सुमन कहते हैं कि 'कागज पे रख दिया है कलेजा निकाल के" उक्ति इस विधा पर पूर्णतया घटित होती है । दिनकर इस विधा को कला के लिए कला का साक्षात् प्रमाण मानते थे । उनका कहना था कि निबंधों की शैली में लेखक के व्यक्तित्व का वैशिष्ट्य उजागर होता है, परन्तु पत्र लेखन में तो लेखक का स्वभाव, चिंतन-मनन, उत्पीड़न, उल्लास, उन्माद और अन्तर्द्वन्द्व सभी नितान्त सहज भाव से मुखर हो उठते हैं । '
जैसे पंडित नेहरू के 'पिता के पत्र पुत्री के नाम' तथा गांधीजी के अनेक पत्र साहित्यिक एवं राजनैतिक दृष्टि से अपना विशिष्ट महत्त्व रखते हैं वैसे ही आचार्य तुलसी के अनेक पत्र ऐतिहासिक महत्त्व रखते हैं । उन्होंने साधुसाध्वियों को संबोधित करके हजारों पत्र लिखे हैं, जो अध्यात्म जगत् की अमूल्य थाती हैं | राजस्थानी भाषा में मां वदनाजी एवं मंत्री मुनि मगनलालजी को लिखे गए पत्रों में संवेदना का ऐसा निर्भर प्रवाहित है; जिसकी कल-कल ध्वनि आज भी पाठक को बांधने में सक्षम हैं। अपने हाथ से दीक्षित मां वदनाजी को लिखे पत्र की कुछ पंक्तियां यहां उद्धृत हैं - "यह पत्र स्वान्तः सुखाय' या ' त्वच्चेतः प्रसत्तये' लिख रहा हूं। आपके शान्त, सरल एवं निष्काम जीवन के साथ किसी भी साधक के मन में स्पर्धा हो सकती है । मितभाषिता, मधुर मुस्कान, स्वाध्याय तल्लीनता, सहृदयता, बाह्याभ्यन्तर एकता, सबके प्रति समानता, ये सब ऐसी विशेषताएं हैं जो बरबस किसी को आकृष्ट किए बिना नहीं रहतीं ।
मैं अपने आपको धन्य मानता हूं सहज भोली-भाली सूरत में अपनी माता को संयम - साधना में तल्लीन देखकर ।
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आचार्य तुलसी के पत्र सादगी, संयम और सृजन के संदेश हैं। पत्रों के माध्यम से उन्होंने हजारों व्यक्तित्वों को प्रेरणाएं दी हैं । तथा उनके जीवन में नव उत्साह का संचार किया है । उनके पत्र केवल समाचारों के वाहक ही नहीं होते उनमें संयम को परिपुष्ट करने, कषायों को शांत करने तथा अध्यात्म पथ पर आरोहण के लिए आवश्यक उपायों के निर्देश भी प्राप्त होते हैं । पत्रों की भाषा और भावाभिव्यक्ति इतनी सरल और सशक्त है
१. दिनकर के पत्र भूमिका पृ० ११
२. मां वदना पृ० ८७
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