________________
गद्य साहित्य : पर्यालोचन और मूल्यांकन
१२३
अपने एक प्रवचन में दोनों की उपयोगिता एवं कार्यक्षेत्र पर प्रकाश डालते हुए वे कहते हैं--- "विज्ञान की आशातीत सफलता देखकर लगता है, विज्ञान के बिना मनुष्य की गति नहीं है । पर साथ ही आंतरिक शक्ति के विकास बिना बाह्य शक्ति का विकास अपूर्ण ही नहीं, विनाशकारी भी है।' एक गेय गीत में भी वे इस सत्य का संगान करते हैं...
"कोरी आध्यात्मिकता युग को त्राण नहीं दे पाएगी, कोरी वैज्ञानिकता युग को प्राण नहीं दे पाएगी,
दोनों की प्रीत जुड़ेगी, युगधारा तभी. मुड़ेगी।"
उनका सन्तुलित दृष्टिकोण जहां दोनों की अच्छाई देखता है, वहां बुराई की भी समीक्षा करता है । विज्ञान की समालोचना करते हुए वे कहते हैं----"वर्तमान विज्ञान जड़ तत्त्वों की छान-बीन में लगा हुआ है । वह भौतिकवादी दृष्टिकोण के सहारे पनपा है अतः आत्म-अन्वेषण से उदासीन है।" इसी प्रकार धर्म के बारे में भी उनका चिन्तन स्पष्ट है -- "जिस धर्म के सहारे सुख-सुविधा के साधन जुटाए जाते हैं, प्रतिष्ठा की कृत्रिम भूख को शांत किया जाता है, प्रदर्शन और आडम्बर को प्रोत्साहन दिया जाता है, उस धर्म की शरण से शांति नहीं मिल सकती।"३
वे इस बात से चिन्तित हैं कि वैज्ञानिक आविष्कारों ने पृथ्वी का अनावश्यक दोहन प्रारम्भ कर दिया है। विश्व को पलक झपकते ही समाप्त किया जा सके, ऐसे अणुशस्त्रों का निर्माण हो चुका है। ऐसी स्थिति में उनका समाधायक मन कहता है कि अध्यात्म ही वह अंकुश है, जो विज्ञान पर नियन्त्रण कर सकता है। . धर्म और सम्प्रदाय
साम्प्रदायिकता का उन्माद प्राचीनकाल से ही हिंसा एवं विध्वंस का तांडव नृत्य प्रस्तुत करता रहा है । इतिहास गवाह है कि एक मुस्लिम शासक ने अपने राज्यकाल के ११ वर्षों में धर्म और प्रान्त के नाम पर खून की नदियां ही नहीं बहाई बल्कि एक ग्रन्थालय का ईंधन के रूप में उपयोग किया, जो १० लाख बहुमूल्य ग्रन्थों से परिपूर्ण था। वे पुस्तकें पांच हजार रसोइयों के लिए छह मास के ईन्धन के रूप में पर्याप्त थीं। इस दुष्कृत्य का तार्किक समाधान करते हुए सांप्रदायिक अभिनिवेश में रंगा वह शासक बोला--- "यदि ये पुस्तकें कुरान के अनुकूल हैं तो कुरान ही पर्याप्त है। यदि कुरान के प्रतिकूल हैं तो काफिरों की पुस्तकों की कोई आवश्यकता नहीं।" धर्म और मजहब के नाम से ऐसे भीषण अत्याचारों से इतिहास के पृष्ठ भरे पड़े हैं।
१. जैन भारती, १४ सितम्बर १९६९ । २. खोए सो पाए, पृ० ६३ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org