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________________ आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण किसी भी महापुरुष ने धर्म का प्रारम्भ किसी सीमित दायरे में नहीं किया पर उनके अनुगामी संख्या के व्यामोह में सम्प्रदाय के घेरे में बन्ध जाते हैं तथा धर्म के स्वरूप को विकृत कर देते हैं । सम्प्रदाय के सन्दर्भ में आचार्य तुलसी का चिन्तन बहुत स्पष्ट एवं मौलिक है - "मेरी आस्था इस बात में है कि सम्प्रदाय अपने स्थान पर रहे और उसका उपयोग भी है किन्तु वह सत्य का स्थान न ले । सत्य का माध्यम ही बना रहे, स्वयं सत्य न बने । " " आचार्य तुलसी के अनुसार संप्रदाय के नाम पर मानव जाति की एकता और अखंडता को बांटना अक्षम्य अपराध है । इस सन्दर्भ में उनका चिन्तन है कि भौगोलिक सीमा, जाति आदि ने मनुष्य जाति को बांटा तो उसका आधार भौतिक था । इसलिए उन्हें दोष नहीं दिया जा सकता पर धर्म-सम्प्रदाय ही मानव जाति को विभक्त कर डाले, यह अक्षम्य है । उनका चिन्तन है कि जो लोगों को बांटते हैं, ऐसे तथाकथित धार्मिकों से तो वे नास्तिक ही भले हैं, जो धर्म को नहीं मानते तो धर्म के नाम पर ठगी भी नहीं करते । १२४ आचार्य तुलसी का मानना है कि साम्प्रदायिक भावनाओं को प्रश्रय देने वाले संप्रदाय खतरे से खाली नहीं हैं । उनका भविष्य कालिमापूर्ण है । एक धर्म-सम्प्रदाय के आचार्य होते हुए भी वे स्पष्ट कहते हैं- "एक संप्रदाय के लोग दूसरे सम्प्रदाय पर कीचड़ उछालें और यह कहें- धर्म तो हमारे सम्प्रदाय में है अन्य सब झूठे हैं । हमारे सम्प्रदाय में आने से ही मुक्ति होगी यह संकुचित दृष्टि समाज का अहित कर रही है ।' ११५ आचार्य तुलसी ने अपने साहित्य में सांप्रदायिकता का जितना विरोध किया है उतना किसी अन्य आचार्य ने किया हो, यह इतिहासकारों के लिए खोज का विषय है । अपने एक प्रवचन में वे स्पष्ट शब्दों में कहते हैं" संप्रदायवादी बातों से मुझे चिढ़ हो गयी है । फलतः मुझे ऐसा अभ्यास हो गया है कि मैं एक महीने तक निरन्तर प्रवचन करूं, उसमें धर्म विशेष का नाम लिए बिना मैं नैतिक बातें कह सकता हूं। मैं अपनी प्रवचन सभाओं में ऐसे प्रयोग करता रहता हूं, जिससे कट्टरपन्थी विचारकों को भी मुक्तभाव से सोचने का अवसर मिले। इतना ही नहीं, जहां सांप्रदायिक संकीर्णता नहीं, वह समारोह किसी भी जाति का हो, किसी भी सम्प्रदाय द्वारा आयोजित १. एक बूंद : एक सागर, पृ० १७२३ । २. जैन भारती, १६ मई १९५४ | ३. बहता पानी निरमला, पृ० ९८ । ४. जैन भारती, २० अप्रैल १९५८ । ५. दक्षिण के अंचल में, पृ० ७१८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003117
Book TitleAcharya Tulsi Sahitya Ek Paryavekshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages708
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size23 MB
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