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आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण
किसी भी साहित्यकार के सामर्थ्य की परीक्षा इससे होती है कि वह अपने अनुभव को सही भाषा में व्यक्त कर पाया या नहीं । आचार्य तुलसी की सृजनात्मक क्षमता इतनी जागृत है कि अनुभूति और अभिव्यक्ति में अन्तराल नहीं है । भाषा पर उनका इतना अधिकार है कि अपने हर भाव को वे सही रूप में अभिव्यक्त करने में सक्षम हैं । यही कारण है कि लेखन में ही नहीं, वक्तृत्व में भी उन्होंने अक्षरमंत्री का विशेष ध्यान रखा है।
वैसे तो आचार्य तुलसी बहुत सीधी-साधी भाषा में अपनी बात पाठक तक संप्रेषित कर देते हैं, पर जहां उन्हें सामाजिक, राजनैतिक एवं धार्मिक कुरीतियों पर प्रहार करना होता है, वहां वे व्यंग्यात्मक भाषा का प्रयोग करते हैं, जिससे उनका कथ्य तीखा और प्रभावी होकर लोगों को कुछ सोचने, भीतर झांकने एवं बदलने को मजबूर कर देता है। धार्मिकों की रूढ़ एवं परिणामशून्य उपासना पद्धति पर किए गये व्यंग्य-बाणों की बौछार की एक छटा दर्शनीय है
___ 'सत्तर वर्ष तक धर्म किया, माला फेरते-फेरते अंगुलियां घिस गई पर मन का मैल नहीं उतरा । चढ़ते-चढ़ते मंदिर की सीढ़ियां घिस गईं पर जीवन नहीं बदला । संतों के पास जाते-जाते पांव घिस गए पर व्यवहार में बदलाव नहीं आया। क्या लाभ हुआ धार्मिकों को ऐसे धर्म से ?'
दान देकर अपने अहं का पोषण करने वाले लोगों के शोषण को शोषित वर्ग के मुख से कितनी मार्मिक एवं व्यंग्यात्मक शैली में कहलवाया है
"हमारा शोषण और उनका अहं पोषण, इसमें पुण्य कैसा ? वे दानी बनें और हम दीन, यह क्यों ? वे हमारा रक्त चूसें और हमें ही एक कण डालकर पुण्य कमाएं, यह कैसी विडम्बना ।
धर्म के क्षेत्र में होने वाले भ्रष्टाचार पर किया गया व्यंग्य सोच की खिड़की को खोलने वाला है
० 'ब्लैक के प्लेग ने भगवान के घर को भी नहीं छोड़ा। घूस देने पर उनके दरवाजे भी रात को खुल जाते हैं।'
राजनीति स्वच्छ या अस्वच्छ नहीं होती। पर भ्रष्ट एवं सत्तालोलुप राजनेता उसकी उजली छवि को धूमिल बना देते हैं । राजनीति की अर्थवत्ता पर की गयी उनकी टिप्पणी व्यंग्यमयी प्रखर शैली का एक निदर्शन है--
"जनता को सादगी और शिष्टाचार का पाठ पढ़ाने वाले नेता जब तक स्वयं अपने जीवन में सादगी नहीं लायेंगे, फिजूलखर्ची से नहीं बचेंगे तो वे जनता का पथदर्शन कैसे कर सकेंगे ?"
आचार्य तुलसी का जीवन अनेक विरोधी युगलों का समाहार है। वे
१. आचार्य तुलसी के अमर संदेश, पृ० ३६
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