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________________ ११० आ० तुलसी साहित्य : एक पर्यवेक्षण वाला हिंसक व्यक्ति भी अहिंसा की भावधारा से अनुप्राणित हो जाता है । उनके जीवन के सैंकड़ों ऐसे प्रसंग है, जहां तीव्र हिंसात्मक वातावरण में भी अहिंसात्मक प्रयोग करते रहे । । वे कभी अपनी समता, सहिष्णुता और धृति से विचलित नहीं हुए । उनकी इसी क्षमता ने उन्हें अन्तर्राष्ट्रीय क्षितिज पर प्रतिष्ठित कर दिया है । अपने अनुभवों को वे इस भाषा में प्रस्तुत करते हैं - "मेरे जीवन में अनेक प्रसंग आए हैं, जहां कुछ लोगों ने मेरे प्रति हिंसा का वातावरण तैयार किया। वे लोग चाहते थे कि मैं अपनी अहिंसात्मक नीति को छोड़कर हिंसा के मैदान में उतर अन्तःकरण ने कभी भी उनका साथ नहीं दिया और मैंने प्रहार का प्रतिकार अहिंसा से किया ।"" जाऊं, पर मेरे हर हिंसात्मक आचार्य तुलसी हर विरोधी एवं विषम स्थिति को विनोद कैसे मानते रहे, इसका अनुभव बताते हुए वे कहते हैं -- "अहिंसा का साधक कटु सत्य भी नहीं बोल सकता, फिर वह कटु आक्षेप, प्रत्याक्षेप या प्रत्याक्रमण कैसे कर सकता है ? इसी बोधपाठ ने मुझे हर परिस्थिति में संयत और सन्तुलित रहना सिखाया है ।" समाचार-पत्रों में जब वे आतंकवादियों की हिंसक वारदातों के विषय में सुनते या पढ़ते हैं तो अनेक बार अपनी अन्तर्भावना इन शब्दों में व्यक्त करते हैं- "मेरे मन में अनेक बार यह विकल्प उठता है कि उपद्रवी और हिंसक भीड़ के बीच में खड़ा हो जाऊं और उन लोगों से कहूं कि तुम कौन होते हो निरपराध एवं निर्दोष प्राणियों को मौत के घाट उतारने वाले?" आचार्यश्री ने अपने जीवन में विष को अमृत बनाया है, संघर्ष की अग्नि को समत्व के जल से शांत करने का प्रयत्न किया है, उनके जीवन की सैकड़ों ऐसी घटनाएं हैं, जो उनके इस अहिंसक व्यक्तित्व की अमिट रेखाएं हैं। पर उन सबका यहां संकलन एवं प्रस्तुतीकरण सम्भव नहीं है। यहां उनके जीवन के कुछ अहिंसक प्रयोग प्रस्तुत किए जा रहे हैं साम्प्रदायिक उन्माद आचार्य बनने के बाद आचार्य तुलसी का प्रथम चातुर्मास बीकानेर में था । चातुर्मास समाप्ति के पश्चात् मार्गशीर्ष कृष्णा प्रतिपदा के मध्याह्न में उन्होंने विहार किया। पूर्व निर्धारित मार्ग पर अभी कुछेक कदम ही आगे बढ़े थे कि अप्रत्याशित रूप से सहसा एक अन्य सम्प्रदाय के आचार्य का जुलूस उन्हें सामने की दिशा से आता हुआ दिखाई दिया । संकरे मार्ग से एक जुलूस भी मुश्किल से गुजर रहा था, वहां दो जुलूसों का एक साथ गुजरना तो सम्भव ही नहीं था । सामने वाले जुलूस से 'हटो' 'हटो' का १. अणुव्रत के आलोक में, पृ० ५० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003117
Book TitleAcharya Tulsi Sahitya Ek Paryavekshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages708
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size23 MB
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